आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा कृत
(Acharya Rabindra Nath Ojha's )
तोहर सरिस एक तोहीं माधव
(महाकवि विद्यापति आधारित निबंध संग्रह)
(Tohar Saris Ek Tohin Madhav)
(Collection of Essays on Mahakavi Vidyapati)
सम्पादक
डॉ अजय कुमार ओझा
Edited by
Dr Ajay Kumar Ojha
लघुमति मोर चरित अवगाहा
हाल ही में छः सांस्कृतिक-आध्यात्मिक-साहित्यिक दृष्टि से प्रभविष्णु किंतु सहज आलेखों से गुजरने का अवसर मिला। गुजरना क्या कहूँ, आकंठ अवगाहन करने एवं अवगाहन के उपरांत उनमें बहने का अवसर मिला। जब तक उनसे गुजरते रहा, तब तक समय और स्थान का आभास ही नहीं रहा। पार उतरने पर कुछ रहस्य और रोमांच खुलकर प्रकट होने लगे जैसे बादल के छँटने पर प्राची में भगवान् भास्कर का उदय हो चुका हो, पाखी मुक्त गगन में उड़ने लगे हों, उनके आकुल उड़ान में विघ्न डालने वाला कोई न हो, वे अपने ही पंखों से होड़ा-होड़ी कर रहे हों, जैसे खुसरो ने दरिया-प्रेम में डूबकर ही पार किया हो, जैसे प्रेम बटी का मदवा पीकर कोई मतवाला हो गया हो । जैसे केवट ने श्रीराम को पार उतारकर स्वयं पार उतर गया हो।
ऐसे पनघट के डगर पर चलना बहुत कठिन होता है पर एक बार सरोवर में उतर जाने पर तैरने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। वहाँ अवरोध के लिए गुरुत्वाकर्षण नहीं होता है, केवल आकर्षण होता है। नाविक को पतवार नहीं चलाना पड़ता है । वह माधव के सहारे मझधार से पार उतर जाता है । किंतु उस डगर तक पहुँचना कठिन होता है। वहाँ पहुंचकर उसमें उतरना और भी कठिन हो जाता है। डगर से पहले तक जो संसार रहता है उसमें बहुत से अवरोध होते हैं, उन अवरोधों को पार करते हुए जीव जब डगर तक पहुँचता है तो वह मोहग्रस्त हाे जाता है। मोह की तमिस्रा को पार कर सराेवर में उतरना अत्यंत कठिन होता है। माधव का सहारा मिल जाए तो भवसागर से पार उतरा जा सकता है। मोहनिशा को पारकर नए प्रभात के दर्शन होते हैं . ‘राम सच्चिदानंद दिनेसा जहँ नहिं मोहनिसा लबलेसा ’ । - तुलसीदास।
इसी मोहनिशा को पार करने के प्रयास में आर्ष मनीषा ने अनेक ऋचाएँ रचीं, मंत्रों का संधान किया, देवताओं का आह्वान किया, ग्रंथों की रचनाएँ की… एक नहीं, दो नहीं, पीढ़ी दर पीढ़ी मानव को पार उतारते गए। इसी परंपरा को स्पर्श करते हुए स्वर्गीय प्रोफेसर रवीन्द्रनाथ ओझा के छः आलेखों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रारंभ में जान पड़ा ये आलेख महाकवि विद्यापति पर हैं, फिर लगा कि ये आलेख ओझा जी की प्रतिभा के परिणाम हैं, ऐसी प्रतिभा जो महाकवि वर्ड्सवर्थ के ‘स्काईलार्क’ की तरह अपनी गगनविहारी उड़ान में धरती और आकाश को नाप रही हो, किसी हंस की तरह मोती चुन रही हो, तुलसी के चातक की तरह भावबोध से गुजरते हुए रामनाम की मोती चुन रही हो ...फिर लगा कि इन आलेखों में विद्यापति के संग ओझा जी भी हैं ...लेकिन इस भाव नदी के पार जाने पर लगा कि महाकवि विद्यापति के ये आलेख माध्यम हैं ओझा जी के स्वयं के आत्म-अन्वेषण के। विद्यापति माधव के माध्यम से आत्म-अन्वेषण करते हैं ...माधव के माध्यम से स्वयं पार उतरना चाहते हैं, फिर इन आलेखों के माध्यम से ओझा जी को स्वयं का अन्वेषण करते हुए पाया, उन्हें मुक्त गगन में विहार करते हुए पाया - विश्व साहित्य के आम्रवन में रसाल को चूसते हुए पाया, अनेकानेक उपवनों में भौंरें की भाँति रस पान करते हुए पाया - भौरें से भी बढ़कर मधुमक्खी की भाँति स्वयं के लिए शहद एकत्र कर पूरी छतरी को दूसरे के लिए छोड़कर दूर देश में जाते हुए देखा। कालांतर में सिर्फ मधु ही रह जाता है...माधव ही रह जाता है...एक ही माधव जिसके माध्यम से विद्यापति कहते हैं कि ‘तोहर सरिस एक तोहीं माधव’....
जब कोई महाकवि अपनी नायिका और नायक के वर्णन में पूर्ण तल्लीन हो जाते हैं तो उनके पास अपने नायक/नायिका के लिए पूर्व की सभी उपमाएँ जूठी लगने लगती हैं । तुलसी के राम के समान दूसरा कोई नहीं, उनकी सीता के समान दूसरा कोई नहीं, राम की नजर में भरत के समान कोई दूसरा भाई नहीं, हनुमान के समान कोई अन्य सेवक नहीं। विद्यापति के माधव के समान कोई नहीं। विद्यापति अपने नैराश्य से उबरने के लिए, व्यर्थता को सार्थकता में बदलने के लिए माधव की शरण में जाते हैं, विभीषण भवसागर को पार कर श्री राम की शरण में आते हैं। माधव सबको शरण देने वाले हैं, श्रीराम सबको शरण देने वाले हैं...शबरी का जूठा बेर खाना प्रेम की पराकाष्ठा नहीं है तो और क्या है...श्रीराम ने तो एक बार बेर खाया और शबरी का उद्धार हो गया किंतु भारत का मानस इतना विराट और कृतज्ञ है कि श्रीराम के मुँह में अभी भी शबरी के जूठे बेर की अनुभूति कर रहा है।
श्रीराम को राष्ट्रनायक एवं लोकनायक बनाने में केवट और शबरी की भूमिका प्रातः स्मरणीय है। जिसमें समता का संस्कार नहीं, वह भारत का लोकनायक नहीं। श्रीराम भारत के सबसे बड़े लोकनायक हैं। जहाँ श्रीराम सबको अपनी मर्यादा और करुणा से जोड़ते हैं, वहीं श्रीकृष्ण अपने प्रेमभरी चितवन से लुभाते हैं । विद्यापति माधव में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें कुछ अन्य नहीं सूझता है, उनके करम की गति को, नैराश्य को माधव अपने में उसी तरह समा लेते हैं जैसे बूँद को सागर। जैसे कबीर के यहाँ जल के बीच घट और घट में जल। घट के फूटते ही घट का जल विशाल जल-राशि में समा जाता है वैसे ही परम भाव की अवस्था में विद्यापति माधव में समाते हुए दिख रहे हैं, ओझा जी विद्यापति के माध्यम से स्वयं का अन्वेषण करते हुए माधव में समाते हुए दिखते हैं। अंत में एक माधव ही बचा रह जाता है . ‘एक तोहीं माधव’।
इन आलेखों को पढ़ते हुए लगा कि विश्व साहित्य से सुपरिचित कोई उपनिषदकालीन ऋषि भारतीय वाङ्गमय को समृद्ध कर रहा हो, अंतस में ऋचाओं का संधान कर रहा हो, उसके अंतस में उठ रही उर्मियाँ शब्दों की शक्ल में कागज पर उतर रहीं हों , कोई हंस मानसरोवर में तैर रहा हो …
और देखते ही देखते पाखी उड़ गया हो ...चल उड़ जा रे पंछी कि यह देश हुआ बेगाना...आज आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा जी हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनकी शब्दकाया आज भी संवाद कर रही है ...इस संवाद को मूर्त रूप देने का कार्य उनके सुपुत्र डॉ. अजय कुमार ओझा ने किया है। प्रोफेसर ओझा की रचनाओं को छपाने का प्रयास अजय जी द्वारा अपने पिता के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। मैं हृदय से स्वर्गीय प्रोफेसर रवीन्द्रनाथ ओझा जी के इन सुपुत्र को धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। अजय जी इसके माध्यम से एक साथ देवकार्य, पितृकार्य और लोककार्य - तीनों का संपादन कर रहे हैं।
ये छः आलेख अपने छोटे कलेवर में बहुत गहरे हैं । इनके विषय में इतना ही कह सकता हूँ कि ‘लघुमति मोर चरित अवगाहा’।
डॉ ओम प्रकाश झा
कवि-कथाकार-अनुवादक
No comments:
Post a Comment