Thursday, November 28, 2019

"सूअर बड़ा कि मैं " - प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा

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मानव - मन भी बड़ा विचित्र होता है। कहिए न, आज सुबह सुबह रामनाम के वक्त ब्राह्मी वेला में इस सूअर का ध्यान कहाँ से चला आया। इस सूअर का नाम कहाँ से चला आया ? मानव - मन की यही विशेषता है कि नाम किसी का लेते रहिए , काम किसी का करते रहिए  और ध्यान किसी का धरते रहिए - नाम , काम और ध्यान में शायद ही कभी समन्वय अथवा सामंजस्य हो पाता है , एकरूपता अथवा एकभावता  आ पाती है। और जब आ जाय तो समझिए  कि आपको सिद्धि मिल गयी , आप धन्य हो उठे , आपका बेड़ा पार हो गया।  पर ऐसे क्षण आते ही कहाँ हैं ? मनुष्य तो जीवन भर कभी इस घाट , कभी उस घाट पर भटकते ही रहता है , भागदौड़ करते ही रहता है पर मनुष्य की यह भागदौड़ भी अपने में कम दिलचस्प नहीं होती  -  हर जीवन्त मनुष्य को नायक बनाकर उसके भरमाव-भटकाव या बहाव को केन्द्र में रखकर हम एक वृहत उपन्यास या महाकाव्य की रचना कर सकते हैं।  तो जितने मनुष्य हुए हैं , हैं , और होंगे उन सभी पर महाकाव्य रचा जा सकता है - यह बात दूसरी है कि उतने महाकवि ही हमें नहीं मिलें , पर यदि मिल जाएँ तो विषयाभाव कदापि न हो सकेगा। तो स्थिति यह है कि महाकवियों के अभाव में बहुत सारे मनुष्य महाकाव्य के नायक बनने से वंचित रह जाते हैं।  

तो देखिए  आज इस संदर्भ में मैं सूअर की बात करने चला हूँ  -  क्या ही बेहूदा विषय मैंने स्वेच्छया चुना है  - इतना ही नहीं , उस सूअर से अपना ही मिलान करके आपसे ही पूछना चाहता हूँ कि सूअर बड़ा है कि मैं ?   भला , यह भी कोई प्रश्न है ? इसे आप मानसिक विकृति या विक्षिप्ति छोड़कर दूसरा क्या कहना चाहेंगे , दूसरा क्या कहेंगे ?

सूअर तो बड़ा गंदा जानवर होता है , जानवरों में निम्नतम, निकृष्टतम, घृण्य-घृणिततम। उसे तो लोग देखना तक पसंद नहीं करते, उसका नाम तक लेना नहीं चाहते।  वह तो नारकीय जानवर है , नरक का संवाहक है, नरक ही है।  इसीलिए मनुष्य जब किसी से बहित ही नाराज़ -नाखुश होता है तो उसे सूअर कहता है।  अपनी नाखुशी को प्रकट करने के लिए आदमी 
तीन या चार प्राणियों का नाम लेता है , उन्हें रूपक बनाता है - कुत्ता , गदहा , सूअर , उल्लू।  पर सबसे अधिक जब गंदगी मिश्रित नाखुशी ज़ाहिर करनी होती है तब मनुष्य को सूअर कहते हैं या सूअर का बच्चा , सूअर की औलाद।उल्लू की तरह सूअर भी हिंदी या अन्य भाषाओँ में भी रूपक -रूप में सर्वाधिक गृहीत है , सर्वाधिक प्रयुक्त होता है।  इन दोनों की लक्षणा और व्यंजना - शक्ति अद्भुत अपूर्व असीम होती है।  

इस मानी में हमारा साहित्य सूअर और उल्लू दोनों का परम ऋणी है , आभारी है।  इन दोनों ने साहित्य को अभूतपूर्व व्यंजकता की  समृद्धि प्रदान की है और साहित्य के इतिहास में उन्हें सर्वोच्च सिंहासन मिलना चाहिए - इस सम्मान के वे सर्वाधिक दमदार हक़दार हैं। 

आज मैं सूअर की बात विशेष रूप से करूँगा  -  उल्लू की बात किसी दूसरे दिन होगी। 

यों सूअर को हम अधमाधम जीव मानते हैं जो गंदगी -गलीज़ , मल -मूत्र  का पर्यायवाची हो गया है। जगत  में इससे गंदा, इससे ज़्यादा गंदगीप्रिय कोई दूसरा जीव हो ही नहीं सकता।  मनुष्यों में भी जो नराधम होते हैं , इन्हे सूअर की संज्ञा मिलती है। 

मैं तो पहले सूअर से इतना घृणा करता था, भय भी कि सूअर महाराज के दर्शन हो गये सुबह - सुबह तो दो बार स्नान और उपवास करता।उस दिन किसी काम में मन नहीं लगता, नितान्त असहज और अव्यवस्थ हो  उठता ; अपनी पकड़ खो बैठता , अपनी लयात्मकता भी।  और दोपहर या शाम को उन्हें देख लेता तो वमन हो जाता।  किसी भी प्रसंग में उनका नाम-स्मरण या रूपदर्शन मुझमें एक विक्षोभ या एक विकार पैदा कर देता - मैं दूषित - प्रदूषित , अव्यवस्थ- अस्वस्थ हो उठता।  पर अब जाने क्यों सूअरों के प्रति एक सहानुभूति पैदा होने लगी है , एक स्नेह पैदा होने लगा है। अब सूअरों को देखता हूँ तो उन्हें गौर से, सहानुभूति से , प्रेम से देखता हूँ।  अब उनके प्रति एक ममता , एक आसक्ति उपज आयी है।  अब वे मुझे गंदे नहीं  लगते ; उनसे घृणा , जुगुप्सा और भय की भावनाएं जाती रहीं।  अब वे प्यारे लगने लगे हैं।  अब वे गंदे न रहे और न उनकी गंदगी गंदगी रही।  दृष्टि बदलते ही दृश्य बदल जाता है , भाव बदलते ही भूत (प्राणी)
 बदल जाता है , ममता जागृत होते ही रूप बदल जाता है , नहीं तो श्यामवर्णा विरूपा - कुरुपाओं को कोई पूछता तक नहीं  - पर भावविह्वल होने पर वे भी कितनी रूपवती , लावण्यमती हो उठती है। 

आज मैं सब जानवरों से अधिक इन सूअरों को घूर -घूरकर देखने लगा हूँ -प्यार करने लगा हूँ।  कितने सुन्दर हैं ये ! कितने सरल-निश्छल, कितने निर्दोष , मासूम। कितने महत्वपूर्ण -महान।प्रफुल्लयौवना सुवर्णा नारी की तरह , कंचनकामिनी, मेघदामिनी की तरह उनके अंग-अंग अब सुन्दर मनोहारी लगने लगे हैं। 
सूअर किसी का नुकसान नहीं करते , किसी को गाली नहीं देते , किसी पर गोली भी नहीं दागते, न किसी पर बम ही फेंकते हैं , न ही छूरे -चाकू का प्रहार।  किसी को लूटते-पाटते भी नहीं , किसी के साथ विश्वासघात या चुगलखोरी भी नहीं करते ! सूअर अपना समय व्यर्थ नहीं गँवाते, बोलते भी बहुत कम हैं , सिर्फ अपना काम करते रहते हैं  - काम ही पूजा है - 'Work is worship' उनके लिए।  सूअर बड़े शांतिप्रिय जीव हैं , परम अहिंसावादी - वे गांधीजी के सच्चे अनुयायी हैं - मानवता के सच्चे सेवक हैं - धरती की गंदगी -गलीज़ , मल - मूत्र वे साफ़ करते हैं , धरती को यथासंभव साफ़ -सुथरा स्वच्छ रखने में ही वे अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं, अपने जीवन की धन्यता मानते हैं , अपना अहोभाग्य। प्रकृति के मेहतर हैं वे इसीलिए इतने महत्तर हैं वे।  औरों की ग़लीज़ों को ये अपना लेते हैं , पचा लेते हैं , आत्मसात कर लेते हैं।  इनका जीवन शिव की तरह परम कल्याणकारी है , अग्नि की तरह है ,पवन की तरह है , जल की तरह है , धरती की तरह है , आसमान की तरह है जो गंदगी , दुर्गन्ध सड़ाँध को धीरे -धीरे सोख लेते हैं , उदरस्थ - आत्मस्थ कर जाते हैं। 

बल्कि एक बहुत बड़ा अंतर है सूअरों में।  वे दूसरों द्वारा निष्कासित घृण्य वस्तुओं को , तत्वों को , पदार्थों को पचाकर उन्हें जीवन रस में , अमृतरस में ढाल देते हैं।  जो वस्तुएँ और पदार्थ औरों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए परम हानिकारक होते हैं उन्हीं को ये अपनी साधना से , परम सिद्धि  से, योगाभ्यास  से , जन्मसिद्ध अधिकार से जीवन को पुष्ट और संवर्धित करने का साधन बना लेते हैं।  यह सूअरों का ही चमत्कार है, उन्हीं की अप्रतिम सिद्धि ; गंदगी -गलीज़ , मल -मूत्र , सड़ल - गड़ल को जीवन -रस में बदल देना  -  भला यह काम कोई दूसरा कर सका है ? कर सकता है या कर सकेगा कभी ?  

कल रात  मैं दो बजे के करीब उठ गया।  सबेरे सोया था , लगा नींद पूरी हो गयी - 'फ्रेश ' महसूस करने लगा - बुढ़ापा आ गया है - बाल पूरे के पूरे सफ़ेद हो चले हैं - शरीर रोगजर्जर हो गया है - 'अंगम गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डं' l   अंग -अंग शिथिल पड़ते जा रहे हैं - अब सोचता हूँ -  राम -नाम लूँ , भजन करूँ  - कीर्तन करूँ। जीवन का स्वर्णिम समय तो कंचन-कनक , कामना - कामिनियों में बिता दिया अब किसी काम लायक न रहा तो निश्चय ही राम -नाम में भक्तिभाव पैदा करना चाहिए - शायद ऐसा करने से पाप -ताप सब धूल जायेंगे और अगला जीवन भी कुछ चुस्त -दुरुस्त हो जायेगा।  इसी लालच से , इसी लालसा से अब राम -नाम लेने लगा हूँ - खासकर सुबह में निद्रा त्याग करने पर।  तो उस रात मैं मन ही मन राम-नाम का कीर्तन करने लगा  इसलिए कि पास में शान्त -उदासीन सोयी पत्नी और अगल-बगल के लोगों की निद्रा में कोई खलल न पहुँचे, बाधा न पहुँचे।  पूरी शांति थी उस वक्त और पूरा प्रगाढ़ अंधकार भी।  न आकाश में चंदा की चांदनी थी , न धरती पर बिजली -व्यवस्था।  विराट के प्रांगण में जो खेल अनादि काल से गिरगिटी चांदनी खेलते आयी है , वही खेल  आजकल वारांगना - बिजली धरती के हमारे घर -आँगन में खेलने लगी है। इस दोतरफा सतत वृद्धिंगत अंधकार के विशाल कुंभकर्णी वक्ष का छेदन -वेधन तारकों की टिमटिमाती क्षीण , मलिन ज्योति न कर पाती थी।अंधकार के नक्कारखाने में इन तारकों की ज्योति तूती की आवाज़ जैसी थी या ऐसा कहें कि अनन्त अंधकार के महापारावार में इनकी ज्योति असंख्य छोटे दीपों या द्वीपखण्डों की तरह थी जिन्हें पारावार बार बार परास्त कर देता। 
इसी बीच मैंने अपने घर के बाहर कुछ चहल पहल सुनी - कुछ दौड़ादौड़ी, कुछ आपाधापी - मैं चौंका , क्या बात है ? कौन हैं ये लोग इस अंधेरी निशा में , इस निस्तब्धता में, मध्यरात्रि के इस मौन -सन्नाटे में ? घर के भीतर यह कार्यकलाप होता तो मैं ज़्यादा संत्रस्त , ज़्यादा भयभीत हो उठता - सोचता चोर-डाकू घर में घुस आये हैं और उन्होंने अपना Operation शुरू कर दिया है।  पर ये लोग बहार क्या कर रहे हैं ? मैं कान लगाकर सुनने लगा, कुछ मोटी गहरी आवाज़ें भी निकलती।  उनकी बीच -बीच की परिचित आवाज़ों को सुनने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँच पाया कि हो न हो, ये सूअर महाराज लोग हैं जो दो बजे रात से ही अपने सफाई अभियान में जुट गये हैं।  सभी प्राणी अभी निद्रा देवी की ममतामयी सम्मोहिनी गॉड में विश्राम कर रहे हैं और ये सूअर महाराज अपनी निद्रा -विश्राम-सुरक्षा का कोई ख्याल न कर इस अंधेरी निशा में पूरा जोखिम उठाते हुए यहाँ पहुँच गये हैं अपने काम पर, अपने 'मिशन ' में  - आसपास की धरती को गंदगी -विहीन करना चाहते हैं , अपनी ओर से ज़्यादा से ज़्यादा स्वच्छ साफ़ बनाना चाहते हैं ताकि अन्य जीव सुन्दर ,स्वस्थ , दीर्घ , प्रफुल्ल जीवन बिता सकें। 

मैं देखता हूँ ये पूरे 'Missionary Zeal' से गंदगी के सर्वनाश में  जुट गए हैं - गलीज  का सर्वग्रास करते जा रहे हैं। मैंने देखा - एक जगह की संचित गंदगी राशि को उदरस्थ-आत्मस्थ कर वे दूसरी जगह दौड़ पड़ते हैं और फिर वहाँ की दीर्घकालीन संचित मलराशि का स्वाहा कर तीसरी जगह दौड़ पड़ते हैं।  देखा कि वे कुम्भकर्णी क्षुधा से गंदगी के पहाड़ पर टूट पड़े हैं और उनके सामने गंदगी- राक्षिसिनी पूरी तरह समर्पण करते जा रही है - 
'Complete surrender, No resistance' सूअरों का यह दल पूरी तन्मयता से, पूरी निष्ठा और एकाग्रता से गंदगी के सफाई - अभियान में जुट गया है।  कभी -कभी इस सैन्य -संचालन के क्रम में उनके मुख का सुपरिचित वाद्य बज उठता है और अपने शांत मंद्र गंभीर सागर-स्वर -संगीत से सारे वातावरण को संगीतमय बना देता है। 

मैं सोचता हूँ मैं कमरे में बंद बिस्तर पर लेटा , रजाई -कंबल  से पूरी तरह ढका, हर प्रकार से सुरक्षित, राम -नाम जप कर रहा हूँ और ये सूअर अपना घर-द्वार छोड़, अपने बीवी - बच्चों से माया तोड़, शीतलहरी और ठंढी बयार का सामना करते हुए, डाकुओं -राहजनों -पुलिसवालों के संभावित खतरों को नजरअंदाज  बल्कि आमंत्रित करते हुए मल सफाई - यज्ञ में अपना बहुमूल्य योगदान कर रहे हैं।  इनसे बड़ा मानवता का निःस्वार्थ सेवक, महाव्रती, त्यागी, विरागी, योगी, साधक सिद्ध कौन होगा ?

असल पूजा -अर्चना तो यही कर रहे हैं - असल साधना -सत्कर्म तो यही है - असल अध्यात्म तो यही है।  मैं तो सीमा के घेरे में बंद , स्वार्थ की चादर में लिपटा, सुरक्षा की रजाई ओढ़े, सर्वसुखसुविधा भोगी उनके साथ कहाँ तक टक्कर ले सकता हूँ ? अंत में सद्बुद्धि जगी, मेरा अहं टूटा ; मैंने शूकरों को समर्पण किया, साष्टांग दंडवत भी। 

शुकरदेव सचमुच हमारे नमस्य हैं, प्रणम्य हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं।  शूकर -सत्संग हमारे मन -वच -काया का जीर्णोद्धार कर सकता है, हमें मुक्ति -मोक्ष निर्वाण दिला सकता है, हमें सुगतित्व की ओर, सुमतित्व की ओर, शिवत्व की ओर ले जा सकता है - आप मानें या न मानें। 

प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा 

"नैवेद्यं " निबंध - संग्रह से 
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