मैं क्यों लिखता हूँ - रवीन्द्र नाथ ओझा
(Why do I write - Rabindra Nath Ojha)
प्रॉ (डॉ) रवीन्द्र नाथ ओझा |
हर सृष्टि अपने स्रष्टा की अभिव्यक्ति होती है, यह पूरी सृष्टि परमात्मा की अभिव्यक्ति ही तो है। अपने को अभिव्यक्त करने की यह प्रवृत्ति जन्मजात होती है। हर व्यक्ति अपने को व्यक्त करना चाहता है। यह अभिव्यक्ति अनेक रूपों में हो सकती है। हम अपने अंगसंचालन से , अपनी वाणी से, अपने लेखन से , यहाँ तक कि अपनी चाल और पोशाक से अपने को सदैव - सर्वत्र अभिव्यक्त करते चलते हैं। हम विभिन्न माध्यमों से अपने भावों - विचारों , आवेगों -संवेगों , प्रतिक्रियाओं , अनुभवों - अनुभूतियों , सपनों , संघर्षों , संकल्पों ,जीवन के निचोड़ों -निष्कर्षों को अभिव्यक्ति देते रहते हैं। अपने क्रियाकलापों , गतिविधियों द्वारा भी मनुष्य अपने को, अपने सत्त्व और निजत्व को अभिव्यक्ति देता रहता है - व्यक्तिकरण की यह प्रक्रिया निर्बाध चलती रहती है - अविरल , आजीवन।
अपने अनुभवों के आधार पर मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आत्माभिव्यक्ति का सुख सबसे बड़ा सुख होता है। यदि हम अपने को पूरी तरह या लगभग पूरी तरह व्यक्त कर पाते हैं तो हमें एक प्रकार का विशेष सुख प्राप्त होता है , एक विशिष्ट उपलब्धि की परितृप्ति होती है। संभवतः इससे बड़ा सुख हो ही नहीं सकता , कम से कम मेरी नज़रों में। हाँ , इससे बड़ा सृजन -सुख ही हो सकता है। जब हम किसी तरह का सृजन करते हैं और वह सृजन मनोनुकूल हो जाता है तो वह सुख निश्चित रूप से उच्चतर कोटि का होता है पर सृजन भी अंततोगत्वा आत्माभिव्यक्ति ही तो है।
मनुष्य जैसा है , जिस प्रकृति का है , जिस संस्कार का है उसी के अनुसार उसकी अभिव्यक्ति होती है। किसी भी व्यक्ति को उसकी नानाविध अभिव्यक्तियों से पूरी तरह जाना - समझा जा सकता है , हालांकि यह भी सही है कि मनुष्य अपनी समग्र अभिव्यक्तियों से भी बड़ा होता है , वृहत्तर होता है। जैसे हर कलाकृति से उसका कलाकार बड़ा होता है , हर रचना से बड़ा उसका रचयिता क्योंकि लाख कोशिश करके भी आतंरिक व्यक्तित्व और उसकी वाह्य अभिव्यक्ति में कुछ अंतर रह ही जाता है , कुछ gaps छूट ही जाते हैं , कुछ कमियाँ रह ही जाती हैं।
व्यक्ति यदि सतोगुण प्रधान है तो उसकी अभिव्यक्ति सतोगुणी होगी , यदि रजोगुण प्रधान है तो उसकी अभ्व्यक्ति रजोगुणी होगी और यदि तमोगुण प्रधान है तो उसकी अभिव्यक्ति तमोगुणी होगी यानी व्यक्ति की प्रकृति का प्रभाव निश्चित रूप से उसकी अभिव्यक्ति पर पड़ता ही है , इसीलिए तो हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति भिन्न होती है। जो व्यक्ति त्रिगुणात्मिका प्रकृति के पार चला जाता है (साधना -सिद्धि अथवा पुण्यकर्मों के फलोदय अथवा ईश्वरीय अनुकम्पा से ) यानी जो आत्माराम , आत्मलीन हो जाता है उसकी अभिव्यक्ति बिलकुल भिन्न प्रकार की होगी। ऐसा व्यक्ति भाषातीतता के चिर - स्पृहणीय , चिरवांछित क्षेत्र में सहजमेव प्रवेश पा लेने का अधिकारी हो जाता है।
व्यक्ति और व्यक्तित्व की कई कोटियाँ होती हैं - कुछ व्यक्ति काष्ठवत , पाषाणवत होते हैं , बिलकुल संवेदनहीन , भावशून्य। कुछ संवेदनशील , भावप्रवण होते हैं और कुछ तो अत्यन्त संवेदनशील और अत्यन्त भावुक होते हैं। कुछ की कल्पनाशक्ति बड़ी उर्वरा होती है , कुछ स्वप्नदर्शी होते हैं। कुछ के जीवन में प्रवाह होता है , कुछ प्रवाहमान, विकासमान होते हैं और कुछ के जीवन में गत्यवरोध उपस्थित हो जाता है , जीवनधारा अवरुद्ध हो जाती है और वे static, stagnant हो जाते हैं। कुछ कूप , कुछ सरिता , कुछ सागर होते हैं।
जो व्यक्ति सतत प्रवाहमान है , स्फूर्तिमान है , ग्रहणशील है , संवेदनशील है , स्वप्नदर्शी है , वह सदा अपने भावों - विचारों - अनुभूतियों - सपनों को अभिव्यक्ति देता रहेगा। इसके विपरीत जिसके जीवन में गतिरोध उपस्थित हो गया , जो थक गया ,थम गया , रुक गया , उसकी अभ्व्यक्ति भी थम जायेगी, रुक जायेगी।
जहाँ तक लिखने या रचने का सवाल है , यह भाषिक अभिव्यक्ति से सम्बन्धित है। मन अभी भी , इस उम्र में भी लिखता या रचता रहता हूँ क्योंकि मी दिल -दिमाग के दरवाज़े - खिड़कियाँ अभी भी पूरी तरह खुले रहते हैं जिनसे होकर नित - नित अभिनव प्रकाश एवं पवन - प्रवाह आता रहता है। मैं इस उम्र में भी लिखता हूँ क्योंकि मेरी चेतना नित - नित ऊर्ध्वगामी और प्रसाराकांक्षी है , क्योंकि मेरी भावना अभी भी ज़िंदा है , क्योंकि मेरी कल्पनाशक्ति अभी भी स्फूर्तिवती है , क्योंकि मेरे सपने अभी भी मरे नहीं हैं , क्योंकि मेरे संवेदन -तंत्र एवं स्नायुतंत्र अभी भी पूरी तरह जीवंत एवं क्रियाशील है। मेरे दिल - दिमाग में नित नये विचार आते हैं , नये -नये भाव उमड़ते हैं , नयी - नयी अनुभूतियाँ होती है , नये -नये सपने उगते रहते हैं , तड़पते रहते हैं। जब मेरी अंतर्सत्ता इन भावों -विचारों -अनुभूतियों से परिप्लावित हो उठती है तो मेरे भीतर एक असह्य आलोड़न , एक दुस्सह विक्षोभ पैदा हो जाता है तब उस स्थिति में उन्हें अभिव्यक्ति देना यानी लिखना , अनिवार्य हो जाता है। उसके बिना चैन नहीं , शांति नहीं ,संतोष नहीं , तृप्ति नहीं। आतंरिक शांति -लाभ के लिए , आतंरिक विक्षोभ - मुक्ति के लिए , आन्तरिक सामरस्य - संस्थापन के लिए लिखना या रचना अपरिहार्य हो जाता है। गर्भवती नारी की स्थिति हो जाती है जिसे सफल , स्वस्थ प्रसवन के बिना चैन नहीं , आराम नहीं , राहत नहीं। और मनोनुकूल प्रसवन के बाद कितना relief मिलता है , कितना सुख , यह प्रसविता ही जानती है , अनुभव करती है।
जिस दिन मेरा आतंरिक प्रगति -प्रवाह रुक जाएगा , जिस दिन मेरी संवेदनशीलता समाप्त हो जायेगी , उस दिन मेरा लिखना भी अपने आप बंद हो जाएगा। निरंतर लिखते रहना , निरंतर अपने को व्यक्त करते रहना , वार्धक्य में भी , रुग्णता में भी , चेतना की प्रवाहमानता का सूचक है, प्राणोर्जा की जीवन्तता एवं ऊर्जस्विता का द्योतक है। में शायद अभी भी युवकोचित स्फूर्ति -ऊर्जा एवं सपनों -संकल्पों से भरपूर हूँ इसीलिए मैं इस उम्र में भी लिखने या रचने की स्थिति में हूँ। जिस दिन यह स्थिति नहीं रहेगी , जिस दिन मेरी चेतना का प्रवाह रुक जाएगा , जिस दिन मेरे भीतर जवानी की दरिया सुख जायेगी , जिस दिन मेरे भीतर बुढ़ापे की बर्फ जमने लगेगी , उस दिन मैं किसी के आग्रह - अनुरोध करने पर भी या अपने चाहने पर भी लिख नहीं पाऊँगा , रचने की बात तो दूर। जब व्यक्ति संवेदनहीन और भावशून्य ही जाय , जब उसके सपने ही मर जाये तो फिर लिखने या रचने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।
अभिव्यक्ति के रुकने या थमने का मतलब ही होता है , जीवनोर्जा का आत्यंतिक क्षरण यानी व्यक्ति का आतंरिक मरण। व्यक्ति बाहर से ज़िंदा भी हो तो वह केवल लाश बनकर जीवित रहेगा - एक ज़िन्दा लाश एक living corpse के रूप में। और ज़िन्दा लाश की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती। सारी अभिव्यक्तियाँ जीवन्त व्यक्तित्व से सम्बन्धित होती हैं। वास्तव में जीवन ही अभिव्यक्ति है , अभिव्यक्ति ही जीवन और मरण उस अभिव्यक्ति का तात्कालिक समापन - संहार।
मनुष्य जैसा है , जिस प्रकृति का है , जिस संस्कार का है उसी के अनुसार उसकी अभिव्यक्ति होती है। किसी भी व्यक्ति को उसकी नानाविध अभिव्यक्तियों से पूरी तरह जाना - समझा जा सकता है , हालांकि यह भी सही है कि मनुष्य अपनी समग्र अभिव्यक्तियों से भी बड़ा होता है , वृहत्तर होता है। जैसे हर कलाकृति से उसका कलाकार बड़ा होता है , हर रचना से बड़ा उसका रचयिता क्योंकि लाख कोशिश करके भी आतंरिक व्यक्तित्व और उसकी वाह्य अभिव्यक्ति में कुछ अंतर रह ही जाता है , कुछ gaps छूट ही जाते हैं , कुछ कमियाँ रह ही जाती हैं।
व्यक्ति यदि सतोगुण प्रधान है तो उसकी अभिव्यक्ति सतोगुणी होगी , यदि रजोगुण प्रधान है तो उसकी अभ्व्यक्ति रजोगुणी होगी और यदि तमोगुण प्रधान है तो उसकी अभिव्यक्ति तमोगुणी होगी यानी व्यक्ति की प्रकृति का प्रभाव निश्चित रूप से उसकी अभिव्यक्ति पर पड़ता ही है , इसीलिए तो हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति भिन्न होती है। जो व्यक्ति त्रिगुणात्मिका प्रकृति के पार चला जाता है (साधना -सिद्धि अथवा पुण्यकर्मों के फलोदय अथवा ईश्वरीय अनुकम्पा से ) यानी जो आत्माराम , आत्मलीन हो जाता है उसकी अभिव्यक्ति बिलकुल भिन्न प्रकार की होगी। ऐसा व्यक्ति भाषातीतता के चिर - स्पृहणीय , चिरवांछित क्षेत्र में सहजमेव प्रवेश पा लेने का अधिकारी हो जाता है।
व्यक्ति और व्यक्तित्व की कई कोटियाँ होती हैं - कुछ व्यक्ति काष्ठवत , पाषाणवत होते हैं , बिलकुल संवेदनहीन , भावशून्य। कुछ संवेदनशील , भावप्रवण होते हैं और कुछ तो अत्यन्त संवेदनशील और अत्यन्त भावुक होते हैं। कुछ की कल्पनाशक्ति बड़ी उर्वरा होती है , कुछ स्वप्नदर्शी होते हैं। कुछ के जीवन में प्रवाह होता है , कुछ प्रवाहमान, विकासमान होते हैं और कुछ के जीवन में गत्यवरोध उपस्थित हो जाता है , जीवनधारा अवरुद्ध हो जाती है और वे static, stagnant हो जाते हैं। कुछ कूप , कुछ सरिता , कुछ सागर होते हैं।
जो व्यक्ति सतत प्रवाहमान है , स्फूर्तिमान है , ग्रहणशील है , संवेदनशील है , स्वप्नदर्शी है , वह सदा अपने भावों - विचारों - अनुभूतियों - सपनों को अभिव्यक्ति देता रहेगा। इसके विपरीत जिसके जीवन में गतिरोध उपस्थित हो गया , जो थक गया ,थम गया , रुक गया , उसकी अभ्व्यक्ति भी थम जायेगी, रुक जायेगी।
जहाँ तक लिखने या रचने का सवाल है , यह भाषिक अभिव्यक्ति से सम्बन्धित है। मन अभी भी , इस उम्र में भी लिखता या रचता रहता हूँ क्योंकि मी दिल -दिमाग के दरवाज़े - खिड़कियाँ अभी भी पूरी तरह खुले रहते हैं जिनसे होकर नित - नित अभिनव प्रकाश एवं पवन - प्रवाह आता रहता है। मैं इस उम्र में भी लिखता हूँ क्योंकि मेरी चेतना नित - नित ऊर्ध्वगामी और प्रसाराकांक्षी है , क्योंकि मेरी भावना अभी भी ज़िंदा है , क्योंकि मेरी कल्पनाशक्ति अभी भी स्फूर्तिवती है , क्योंकि मेरे सपने अभी भी मरे नहीं हैं , क्योंकि मेरे संवेदन -तंत्र एवं स्नायुतंत्र अभी भी पूरी तरह जीवंत एवं क्रियाशील है। मेरे दिल - दिमाग में नित नये विचार आते हैं , नये -नये भाव उमड़ते हैं , नयी - नयी अनुभूतियाँ होती है , नये -नये सपने उगते रहते हैं , तड़पते रहते हैं। जब मेरी अंतर्सत्ता इन भावों -विचारों -अनुभूतियों से परिप्लावित हो उठती है तो मेरे भीतर एक असह्य आलोड़न , एक दुस्सह विक्षोभ पैदा हो जाता है तब उस स्थिति में उन्हें अभिव्यक्ति देना यानी लिखना , अनिवार्य हो जाता है। उसके बिना चैन नहीं , शांति नहीं ,संतोष नहीं , तृप्ति नहीं। आतंरिक शांति -लाभ के लिए , आतंरिक विक्षोभ - मुक्ति के लिए , आन्तरिक सामरस्य - संस्थापन के लिए लिखना या रचना अपरिहार्य हो जाता है। गर्भवती नारी की स्थिति हो जाती है जिसे सफल , स्वस्थ प्रसवन के बिना चैन नहीं , आराम नहीं , राहत नहीं। और मनोनुकूल प्रसवन के बाद कितना relief मिलता है , कितना सुख , यह प्रसविता ही जानती है , अनुभव करती है।
जिस दिन मेरा आतंरिक प्रगति -प्रवाह रुक जाएगा , जिस दिन मेरी संवेदनशीलता समाप्त हो जायेगी , उस दिन मेरा लिखना भी अपने आप बंद हो जाएगा। निरंतर लिखते रहना , निरंतर अपने को व्यक्त करते रहना , वार्धक्य में भी , रुग्णता में भी , चेतना की प्रवाहमानता का सूचक है, प्राणोर्जा की जीवन्तता एवं ऊर्जस्विता का द्योतक है। में शायद अभी भी युवकोचित स्फूर्ति -ऊर्जा एवं सपनों -संकल्पों से भरपूर हूँ इसीलिए मैं इस उम्र में भी लिखने या रचने की स्थिति में हूँ। जिस दिन यह स्थिति नहीं रहेगी , जिस दिन मेरी चेतना का प्रवाह रुक जाएगा , जिस दिन मेरे भीतर जवानी की दरिया सुख जायेगी , जिस दिन मेरे भीतर बुढ़ापे की बर्फ जमने लगेगी , उस दिन मैं किसी के आग्रह - अनुरोध करने पर भी या अपने चाहने पर भी लिख नहीं पाऊँगा , रचने की बात तो दूर। जब व्यक्ति संवेदनहीन और भावशून्य ही जाय , जब उसके सपने ही मर जाये तो फिर लिखने या रचने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।
अभिव्यक्ति के रुकने या थमने का मतलब ही होता है , जीवनोर्जा का आत्यंतिक क्षरण यानी व्यक्ति का आतंरिक मरण। व्यक्ति बाहर से ज़िंदा भी हो तो वह केवल लाश बनकर जीवित रहेगा - एक ज़िन्दा लाश एक living corpse के रूप में। और ज़िन्दा लाश की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती। सारी अभिव्यक्तियाँ जीवन्त व्यक्तित्व से सम्बन्धित होती हैं। वास्तव में जीवन ही अभिव्यक्ति है , अभिव्यक्ति ही जीवन और मरण उस अभिव्यक्ति का तात्कालिक समापन - संहार।
प्रॉ (डॉ) रवीन्द्र नाथ ओझा
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