प्रो रवीन्द्र नाथ ओझा से एक स्नेह -सुरभित साक्षात्कार - मन्त्रमुदित
Prof Rabindra Nath Ojha with Shankar Mahto Tharu Tribe of Bakhari Bazar of West Champaran Bihar Image (C) Dr Ajay Kumar Ojha |
गौर वर्ण , कर्पूरवत केश , प्रशस्त ललाट, नयनाभिराम नासिका, सुदीर्घ कर्ण , स्मित हास्ययुक्त आरक्त अधर , गुरुगम्भीर ललित नेत्र , श्मश्रु -रहित प्रभावक मुखमण्डल, दर्शनीय ग्रीवा , वार्धक्य -वैभव -संपन्न प्रलम्ब देहयष्टि - कुछ इसी सम्मोहन स्वरूप में मुझे सुप्रसिद्ध ललित निबंध-लेखक श्रीयुत रवीन्द्र नाथ ओझा बेतिया के अपने प्रज्ञापुरी -स्थित निवास पर मिले । उस श्रावणी पूर्णिमा के पावस -प्रक्षालित अपराह्न में वे मुझ साहित्यिक अन्तरंग-आत्मीय की प्रतीक्षा ही कर रहे थे क्योंकि पूर्वसुनिश्चित था कि मुझे उनका स्नेह-सुरभित साक्षात्कार लेना है , अर्थात एक सहज -सुमधुर साहित्य - साधक के रचना -संसार से अवगत होना है।
Pragyapuri( Bettiah West Champaran Bihar) Residence of Prof Rabindra Nath Ojha Image (C) Dr Ajay Kumar Ojha |
इतने में ही, सत्कार में मुझ मधुर-प्रिय ब्राह्मण के लिए अनेक मिष्ठान्न एवं गर्मागर्म सुस्वादु व्यंजन समक्ष आ गये, कारण कि उनकी छायानुगामिनी धर्मपत्नी आदरणीया राधिका जी को अपने पतिदेव के प्रियजनों की अभ्यर्थना में अतीव आनंद की अनुभूति होती है । मैंने तो अनुभव किया है कि ऐसे अवसरों पर वे अपनी पाककला का खुलकर आकर्षक प्रदर्शन करती हैं । साथ ही आपने जैसे ही उनके कर्तृत्व की प्रशंसा कर दी तो सुभोजन कराते -कराते अघा देती हैं ।
इस तृप्ति के अनन्तर मैंने ओझाजी से निवेदन किया कि आपने अपने प्रथम ललित निबन्ध - संग्रह 'नैवेद्यम' की प्रस्तावना 'कुछ मेरी भी सुन लें ' में उल्लेख किया है कि आपने कुल दो सौ पचास निबन्ध लिखे हैं , परन्तु 'नैवेद्यम ' में प्रकाशित चौबीस निबन्ध , 'निर्माल्यं' में प्रकाशित इक्कीस निबन्ध , 'सत्यम्-शिवम्' में प्रकाशित चौदह निबन्ध एवं 'शिवम् - सुन्दरं' में प्रकाशित अठारह निबंध का कुल योग सतहत्तर आता है , तो शेष निबन्धों के बारे में भी बतावें । इसका स्पष्टीकरण उन्होंने कुछ इस प्रकार किया । भावुकता में लहराते वे मुझे अपने विशाल अध्ययन -कक्ष में ले गए । वहां मैंने उनके निबन्धों की पांडुलिपियों के सैंतालीस रजिस्टर देखे । एक -एक रजिस्टर में दो से लेकर आठ निबन्ध लिखे थे।
ओझा जी ने श्रीमदभगवद्गीता के सुप्रसिद्ध श्लोकार्थों पर आधारित सात निबन्ध लिखे हैं , जिनमें उनके अनुसार 'भजस्व माम', 'मामेकं शरणं ब्रज', 'योगक्षेम वहाम्यहम्', 'न मे भक्तः प्रणश्यति ', एवं 'मन्मना भव' सारगर्भित होने के कारण महत्वपूर्ण हैं । उन्होंने मैथिल कोकिल विद्यापति के पदों की अर्धाली पर ये छः निबन्ध लिखे हैं - एक करम संग जाए , सागर लहर समाना, तुअ बिनु गति नहिं आरा, तारन भार तोहारा,
तातल सैकत बारि बिन्दु सम एवं तोहर सरिस एक तोहि माधव । इनमें वे 'एक करम संग जाए' तथा 'तारन भार तोहारा' को महत्त्वपूर्ण मानते हैं ।
फिर मैंने उनसे पूछा - " आप अपने प्रकाशित निबन्ध -संग्रहों के उल्लेख्य निबन्धों को बतावें । " ओझा जी ने बताया 'नैवेद्यम' में - जलाशय की अन्तरात्मा , सुअर बड़ा कि मैं , कुतिये का परमानन्द , यदि मेघ न होते, जब मौत मर जाती है और संध्या सुन्दरी , 'निर्माल्यं' में - मैं मेघ होना चाहता हूँ , ब्रह्म-बेला के पाँच चित्र , वसंत के तीन चित्र, मेरी साइकिल , बसगीत महतो की बेवा और महादेव बो पनेरिन, 'सत्यम् -शिवम्' में - मैं गीध होना चाहता हूँ ,गाजरवाली , बैल -विदाई और रामानन्द की पीड़ा तथा 'शिवम् -सुन्दरं' में - उड़ जा पंछी दूर गगन में, नील गगन के तले, चतुरी चमार , काल-प्रवाह की अनुभूति, रामनारायण , सृजन का आनन्द और उषा सुन्दरी मेरे प्रिय निबन्ध हैं , मेरी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण निबन्ध हैं और इनके लेखन में मेरी लेखनी खुलकर लहरायी है, यानी कई -कई इंद्रधनुषों की सृष्टि की है।
उनके अप्रकाशित ललित निबन्धों की पांडुलिपियों की संख्या को देखकर मुझे लगा कि अभी और आठ संकलन प्रकाशित हो सकते हैं। मैंने गद्गद होते उनसे जानना चाहा कि इन अप्रकाशित निबन्धों में आपकी दृष्टि में कौन -कौन से पठनीय निबन्ध हैं ? तभी ध्यान में आया कि बिजली कब की जा चुकी है। वे पसीने से लथपथ हैं। मैं पंखा झलने लगा। वे बताने लगे कि मेरे इन बयालीस प्रिय निबन्धों की सूची अग्रलिखित शीर्षकों के अनुसार बनायी जा सकती है -
अध्यात्मपरक - अनन्त की खोज:असीम की तृष्णा, सम्भोग और समाधि , धोबिया जल बिच मरत पियासा , अकेलत्व की चाह, त्वमेव माता , वैराग्योदय, नाहं वसामि वैकुण्ठे , दुखियारी सारी दुनिया एवं मन फूला -फूला फिरे जगत में
व्यक्तिपरक - मेरे पिताजी , पिताजी की आत्मभर्त्सना , कलम अपनी :आलोचना अपनी , फुआ की विदाई, शिवचंद्र झा की मनोव्यथा , डॉ सत्यदेव ओझा , बीमारी और बीमारी के बाद , बुढ़ापा , बाबा कहि कहि जाए , मैं कवि हूँ : गीत गाता हूँ , मैं नशे में हूँ, मैं धोबी हूँ, अब मुझे यही शरीर चाहिये एवं वासना तू न गयी मेरे मन से
संस्मरणात्मक - जब अज्ञेय जी बेतिया पधारे, बनारस की वह संगीत-संध्या , सहयात्री नरेन्द्र , बुढ़िया भिखारिणी, एक दिन की बात, टेप रिकॉर्डर की खोज , बरखा रानी , एवं ज्योतिष से भेंट
यात्रापरक - मेरी जेल-यात्रा , ट्रैक्टर -यात्रा , मेरी बनारस -यात्रा एवं बड़ी नहर की सैर
स्थानपरक - पटने का गांधी मैदान , दुर्गापूजा में दुर्गा मन्दिर , बेतिया का पशु- मेला, बोल उठा खेत उस दिन , हज़ारी एवं स्टेशन
इतना कहते-कहते बादल बरसने लगे। कुछ बूँदें खुली खिड़की से अन्दर आने लगीं। ठंडक तरोताज़ा कर रही थी। और अन्दर से ओझा जी की 'स्पेशल' एवं 'स्पेशली प्रिपेयर्ड' लीफ वाली मज़ेदार चाय आ गयी। हम दोनों चुस्की लेने लगे।
अब मुझे लगा कि कुछ नितान्त वैयक्तिक परिचय हो जाए। उन्होंने अपने परिवार का सक्षिप्त परिचय देते हुए बताया - " मेरे पितामह पंडित सत्यराम ओझा थे।मैं उनसे विशेष लगाव अनुभव करता था। वे मुझ पर कितनी स्नेह-वर्षा करते थे। जब उनका देहावसान हुआ तो मुझे लगा कि मैं एकदम-से टूट गया हूँ। मेरे पिता सिद्धनाथ ओझा थे तो माता देवमुनि देवी थीं। मेरी एकमात्र पुत्री सुशीला निवेदिता है। मुझे प्रसन्नता है कि उसने भी एम.ए., पी.एच.डी. की उपाधियाँ उपलब्ध की। मेरे जामाता प्रो. डॉ. बलराम मिश्र, एम. ए. (द्वय ), पी.एच. डी., डी. लिट. महारानी जानकी कुँवर महाविद्यालय, बेतिया के स्नातकोत्तर हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होकर अहर्निश साहित्य - सेवा में संलग्न हैं। वे चम्पारण साहित्यकारों में पांक्तेय भी हैं। मेरे पुत्र द्वय अजय एवं संजय भी उच्च पदों पर अधिष्ठित हैं। " आगे उन्होंने गर्व प्रकट किया - " ग्रामीण परिवेश में मैंने जन्म लिया - मध्यवर्गीय ब्राह्मण-कुल में, एक किसान के घर में। मैं जिस परिवेश में बढ़ा-पला, जिस परिवेश में मेरी शिक्षा - दीक्षा हुई, वह बिलकुल ग्राम्य परिवेश था , कृषि और कृषक-परिवेश था , ठेठ भोजपुरी -परिवेश था। भोजपुरी -संस्कार , कृषक -संस्कार और प्रकृति से जुड़ाव - मेरे व्यक्तित्व -निर्माण में काफी दूर तक निर्धारक रहे , निर्णायक रहे। ये तीनों संस्कार अभी तक मेरे भीतर वर्तमान हैं - अपने शुद्ध सहज , निर्विकार भाव में। "
M.J.K. College Bettiah West Champaran Bihar Image (C) Dr Ajay Kumar Ojha |
ओझा जी ऊर्जस्वी एवं मनीषी साहित्य -सर्जक हैं। जब वे भाव-तरंगायित होते हैं तो तीन-चार घंटे तक लगातार लिखते रहते हैं। उनकी जीवन - संगिनी राधिका बताती हैं - " जब वे लिखने लगते हैं तो मैं भी उनके कक्ष में नहीं जाती, कि जाने से लेखन में कहीं व्यवधान न पड़ जाए , जो मोती पन्नों पर बिखर रहे रहे हैं वे कहीं - किसी तल में न अटक जाएँ। बहुत बार तो मैं उन्हें उसी 'साहित्यिक प्रसव -पीड़ा ' में छोड़कर मन्दिर चली जाती हूँ और वहाँ देवता से प्रार्थना करती हूँ कि मेरे पति इसी तरह दिव्य, उज्ज्वल ,उत्तम ललित निबन्धों रूपी 'लालों ' को जन्म देते रहें और मैं एक साहित्यकार की अर्धांगिनी होने का सौभाग्य -सुख पाती रहूँ।"
Radhika Devi Wife of Prof Rabindra Nath Ojha Image (C) Dr Ajay Kumar Ojha |
ओझा जी ने ललित निबन्धों के साथ हिंदी एवं भोजपुरी में कमनीय कविताएँ भी लिखी हैं, जिनकी संख्या क्रमशः एक सौ पचास एवं साठ है। उन्होंने राम बिहारी ओझा रचित भोजपुरी गीता - 'गीता माई ' की विस्तृत एवं प्रभावपूर्ण भूमिका लिखी है। साथ ही अंग्रेजी लघु कथा 'आइसबर्ग' का उनके द्वारा लिखा 'इन्ट्रोडक्शन' भी है।
हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों को ज्ञात है कि ओझा जी जमकर पत्र लिखते हैं , लम्बे -लम्बे पत्र हैं और लगातार लिखते हैं। उनके पत्र 'सारिका ', 'दिनमान', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान ', 'नवनीत', 'मधुमती ', 'कादम्बिनी',
'आजकल','हंस', जैसी पत्रिकाओं में बार -बार छपे हैं। अक्टूबर 1989 के अंक में 'हंस ' द्वारा उन्हें प्रबुद्ध पाठक का सम्मान भी दिया गया है, उनका चित्र भी छापा गया है।
ओझा जी शिक्षक -नेता रहे हैं। एम. जे. के. कॉलेज , बेतिया के शिक्षक -संघ के वे पंद्रह वर्षों तक लगातार सचिव रहे हैं। इस क्रम में उन्हें आंदोलन करते हुए एक बार मुजफ्फरपुर में जेल भी जाना पड़ा। जे.पी. आन्दोलन में ओझा जी को दो बार 'मीसा' के अंतर्गत बेतिया और मोतिहारी के जेलों में रखा गया। ओझा जी जन्मजात आंदोलनकारी हैं। कई आन्दोलनों में कूद पड़ने का उनका लम्बा रेकॉर्ड रहा है। उन रेकॉर्डों को आज भी याद किया जाता है।
एम. जे. के. कॉलेज , बेतिया के अंग्रेजी -विभागाध्यक्ष -पद से सेवानिवृत्ति के अनन्तर उन्होंने रेल मंत्रालय एवं विधि और न्याय मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के मनोनीत सदस्य के रूप में तीन -तीन वर्षों तक अपनी महत्वपूर्ण सेवाएँ समर्पित की हैं।
ओझा जी टेनिस के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। साथ ही उन्हें फुटबॉल ,वॉलीबॉल एवं बैडमिंटन खेलना भी अच्छा लगता है।
जीवन की संध्या में अब ओझा जी अत्यन्त संतुष्ट लगते हैं। उनके लिए जीवन एक अखण्ड आनन्द का उत्सव है। वे मानवता के आराधक हैं। कर्तृत्व के अभिमान से रहित हैं। निर्विकल्प स्थिति में हैं। द्वन्द्वमुक्त हैं। उनकी आकांक्षा है कि सभी धर्म -परायण बनें , प्रीति के पुजारी बनें।
तब तक तीन घंटे बीत चुके थे। आकाश में मेघ पुनः छाने लगे थे। लगता था कि ज़ोरदार वर्षा होगी। अतएव मैंने समर्पित साहित्य - सर्जक श्री आर. एन. ओझा जी से विदा ली। उस समय मैंने नमन करते निहारा तो पाया कि उनकी भावुक आँखों में अग -जग के लिए स्नेह के शत -शत सुरधनु अपने चमकीले रंगों के साथ जगमगा रहे हैं।
"विप्राः बहुधा वदन्ति" 'रवीन्द्र नाथ ओझा के व्यक्तित्व का बहुपक्षीय आकलन' पुस्तक से उदधृत
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