प्रो. रवीन्द्र नाथ ओझा : ओ शिखरस्थ मनीषी
- डॉ. स्वर्णकिरण
जीवनयात्रा में व्यवधान अगर आये
तो स्वयं ख़त्म हो गये ,
नए अनुभव बटोरते रहे रोज़ तुम, जगह -जगह।
स्वर्गलोक में नहीं , ठोस धरती पर चलते रहे ,
कल्पनाएँ उभरीं तो खोये कुछ
पर कटु यथार्थ से कहाँ कभी तुमने अपनी आँखे मूंदी ?
युग परिवर्तन का सपना देखते -संजोते रहे ,
अध्ययन का व्रत चलता रहा निरंतर ,
मानववादी जीवन - दर्शन का गायन
समय -समय पर सम्मुख आकर
करता रहा लोग - बाग को सुरभित -आप्यायित।
भोजपुरी संस्कृति के हामी ,
भारतीय संस्कृति से कहाँ विरोध तनिक भी,
भोजपुरी माटी का ऋण तुमने उतार रख दिया,
"भोजपुरी संस्कृति --" पर लिख दो शब्द।
जुड़े मंचों से , आंदोलन से ,
धन्य लघुकथा आंदोलन हो गया
विचारक रूप तुम्हें पाकर के।
लघुकथा की आत्मा पर बल देने वाले ,
तथ्य -कथ्य दोनों पर दृष्टि समान रहे
तो आकर्षण होना , सच , मुश्किल कहाँ ?
विश्वबंधुता को महत्व देने वाले
ऋषि-मुनियों का आदर्श निभाने वाले
निः स्पृहता मूर्त्ति ,
देखते आँख फाड़कर लोग तुम्हें ,
गौरव जननी के, जन्मभूमि के , चम्पारण के
या गौरव तुम सभी जगह के ,
भेदभाव से परे,
एक अदभुत मानक साहित्य - जगत के।
"विप्राः बहुधा वदन्ति" 'रवीन्द्र नाथ ओझा के व्यक्तित्व का बहुपक्षीय आकलन' पुस्तक से उदधृत
"विप्राः बहुधा वदन्ति" 'रवीन्द्र नाथ ओझा के व्यक्तित्व का बहुपक्षीय आकलन' पुस्तक से उदधृत
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