Editor
Dr Ajay Kumar Ojha
सम्पादक के माउस से
देसिल बयना सब जन मिट्ठा
जब मैं आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा की अप्रकाशित अनगिन-अगणित-असंख्य अमूल्य-बहुमूल्य-अद्वितीय साहित्यिक रचनाओं के आगार पर दृष्टि डाल रहा था तो मुझे एक दो नहीं छः ऐसे आलेख प्राप्त हुए जो महाकवि विद्यापति पर आधृत थे - सभी आलेख एक से बढ़कर एक। मैं तो दंग रह गया उनको पढ़कर। क्या भाषा, क्या शैली, क्या प्रवाह और क्या पकड़ विद्यापति की रचनाओं पर ? ऐसा लगा कि आचार्य ओझा और विद्यापति पृथक व्यक्तित्व नहीं, अलग सत्ता नहीं, अलग अलग युग में जन्मे भी नहीं - दोनों एक ही, दोनों का व्यक्तित्व एक ही, दोनों की सोच भी एक ही, और दोनों एक ही भाव-धारा में बह रहे हों, एक ही तरह की अनुभूति से सराबोर हों, एक ही अमृत की तलाश में - भाव एक, मंजिल एक, लक्ष्य एक। हाँ ये बात अवश्य थी कि विद्यापति की रचना पद्य में और आचार्य ओझा की अभिव्यक्ति गद्य में।
फिर मैंने उन छः आलेखों को स्वयं ही टाइप किया। पेज 60 से भी कम था। कैसे उसे एक पुस्तक का आकार दिया जा सकता था ? क्या एक पुस्तक के लिए उपयुक्त थे वे आलेख ? क्या करूँ ? पुस्तक का रूप दूँ या नहीं ? बड़ी उधेड़बुन में था, पेशोपेश में था, उलझन में था। पर मेरी प्रबल इच्छा थी कि इन आलेखों को लेकर विद्यापति जी पर छोटी ही सही पर एक ऐतिहासिक साहित्यिक महत्व की पुस्तक प्रकाशित कर ही दी जाए।
विद्यापति जी पर बहुतों ने लिखा होगा, आपलोगों ने पढ़ा भी होगा क्योंकि विद्यापति भारतीय साहित्य की ‘शृंगार परम्परा’ के साथ साथ ‘भक्ति परम्परा’ के प्रमुख स्तंभों में से एक और मुख्यतः मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। मिथिला के लोगों को ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का सूत्र देकर उन्होंने उत्तर बिहार में लोकभाषा की जन चेतना को जीवित-जीवंत करने का अद्भुत प्रयास भी किया है। ‘देसिल बयना’ शब्द से तात्पर्य है अपनी देसी भाषा, वस्तु, सामग्री या रचनाओं का समावेश। दूसरों की वस्तुएँ, उनकी भाषाएँ, कला, संस्कृति आदि लुभावनी तो होती हैं पर संतुष्टि सिर्फ अपनी वस्तुओं, अपनी भाषा, अपनी कला, संस्कृति से ही प्राप्त होती है।
तो अब आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा को भी पढ़िए। इनके छः आलेखों को पढ़िए जो विद्यापति जी पर केन्द्रित हैं। जब सभी आलेखों को मैंने टाइप कर दिया तो मेरे सामने समस्या थी इसके प्राक्कथन लिखवाने की। वह विद्वान वैसा होना चाहिए जो महाकवि विद्यापति को अच्छी तरह से पढ़ा हो, समझा हो, जाना हो, उनको आत्मसात किया हो - और साथ ही साथ आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा की रचनाओं से परिचित हो बल्कि उनके व्यक्तित्व से भी।
बहुत मस्तिष्क मंथन करने के पश्चात् मुझे वह व्यक्ति मिल गया. वह व्यक्ति कोई और नहीं डॉ ओम प्रकाश झा हैं जो दूरदर्शन में हिंदी अधिकारी हैं और बहुचर्चित कवि, अनुवादक व कथाकार। इनकी अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और कई तो प्रकाशनाधीन हैं। मेरे बहुत आत्मीय हैं झा जी। बाबूजी से भी परिचित और उनकी रचनाओं से भी परिचित - महाकवि विद्यापति की अजेय कृतियों से भी पूर्णतः भिज्ञ। इनसे अच्छा और उपयुक्त कौन हो सकता था ?
मैंने उनसे संपर्क साधा। वे सहर्ष तैयार हो गए प्राक्कथन लिखने के लिए। पर वे इसी बीच अचानक अस्वस्थ हो गए। कार्यालयीय व्यस्तता और अस्वस्थता के बावजूद समय निकालकर उन्होंने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखा जिसका नाम है - “लघुमति मोर चरित अवगाहा”। झा जी ने इस पुस्तक के शीर्षक का सुझाव भी दिया। मैं बहुत आभारी हूँ डॉ ओम प्रकाश झा जी का।
इस पुस्तक से संबंधित जो आवश्यक और रोचक बातें थीं उसे आप लोगों से साझा किए बिना मैं कैसे रह सकता था ? अब मैं आपसे अनुमति चाहूँगा पर आपको छोड़े जा रहा हूँ इस अद्भुत साहित्यिक कृति के साथ।
जय हिन्द जय भारत !
डॉ अजय कुमार ओझा
पूर्व संवाददाता, यूनाइटेड न्यूजपेपर्स, दिल्ली
पूर्व वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी (दूरदर्शन)
भारतीय प्रसारण सेवा
एडवोकेट, भारत का सर्वोच्च न्यायालय
ई-मेल : ajayojha60@gmail.com
संपर्क : 9968270323
सत्यम् शिवम् के सहयोग से अनुराधा प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित तथा डॉ अजय कुमार ओझा द्वारा सम्पादित यह पुस्तक सभी वर्ग के पाठकों के लिए अवश्यमेव पठनीय व संग्रहणीय है।
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