"चारों ओर वसंत है"
प्रो रवीन्द्र नाथ ओझा
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चारों ओर वसंत है , सौरभ सिंचित दिग्दिगन्त है
जीवन-शतदल लुटा रहा वैभव अगम अनन्त है
तृषातरंग उठी हिय हिय में खोजत पिय निजकंत है
लहरलहरलहरायित अगजग लहरायित जो सहजसंत है
मुर्दा मुर्दानगी मौत पराजित, मरणभाव का चरम अंत है
जीवन-यौवन , सृष्टि जागरण व्यापित विश्व बे-अंत है
जीवन लगता अगम अपरिमित अकथ अनादि अनन्त है
क्यों नहीं रहता सदा भुवन में, सदाबहार वसंत है ?
वन वन कुसुमित सुरभित उपवन हरितपत्र शोभित शाखाएँ
जीवन-ज्वार उमड़ता नभ में बिनु विरोध प्रतिरोध बाधाएँ
आम्र-मंजरी सुरभित कानन बाग-बाटिका दिशा दिशाएँ
उतर पड़ी धरती पर जैसे अनगिन सुन्दर सुरम्य बालाएँ
तृण-तृण आह्लादित-उत्कंठित दिग्दिगन्त उच्छ्वसित हवाएँ
होत प्राप्त आयोजित नभ में खगकुल की संगीत सभाएँ
पौध पौध डंठल डंठल उमगि उमगि निज तान सुनाएँ
सुरस्वर धुनि-लय सजी है कविता रागरागिनी अनगिन भाएँ
कोयल की तो कथा निराली भाव-जलधि अंदर उमड़ाएँ
कवि का हाल बुझे ना कोई मन पर नशा लोकोत्तर छाएँ
बूढ़ा, बालक, नर अरु नारी जड़ चेतन सब कुछ बौराएँ
पियामिलन होगा जल्दी अब पवन सनेसो ऐसो ऐसो लाएँ
इसी आसरे जीवित है जग विरह-वियोग विकट बिसराएँ।
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