विवेक स्वामी विवेकानन्द की
परीक्षा
रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका जाने का निर्णय किया। वो वहाँ जाकर अपने गुरु का संदेश, धर्म का संदेश और शांति का संदेश लोगों को देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने माँ शारदा देवी से अमेरिका जाने की आज्ञा मांगी। उनकी बात सुनकर माँ शारदा देवी ने उन्हें ध्यान से देखा और गंभीर स्वर में कहा ,' सोच कर बताती हूँ। '
विवेकानन्द को लगा , संभवतः अमेरिका जाने की अनुमति न मिले , नहीं तो आशीर्वाद देने के लिए क्या कभी किसी को सोचना भी पड़ता है ! उस समय माँ शारदा सब्जी बना रही थीं। उन्होंने विवेकानन्द से कहा , ' वहाँ पड़ा हुआ चाकू ले आओ। '
स्वामी विवेकानन्द ने सामने पड़ा चाकू उठाया और माँ शारदा देवी के हाथों में रख दिया। इस पर माँ शारदा देवी का चेहरा खिल उठा। उन्होंने तत्क्षण प्रसन्नातापूर्वक स्वामी विवेकानन्द को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी। अब विस्मित होने की आश्चर्यचकित होने की बारी स्वामी विवेकानन्द की थी। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों माँ शारदा ने कहा सोचकर बताती हूँ और फिर क्या सोचकर तत्काल जाने की अनुमति या आज्ञा दे दी। उन्होंने पूछा ,' मेरे चाकू देने और आपके आशीर्वाद देने में क्या संबंध है ?'
माँ शारदा देवी ने उनकी शंका का निवारण करते हुए कहा,' मैंने गौर किया कि तुमने चाकू का धार वाला हिस्सा स्वयं पकड़ा और मेरी ओर हत्थे वाला हिस्सा बढ़ाया। अपने लिए खतरा उठाते हुए भी तुमने मेरी सुरक्षा की चिंता की। अपने इस आचरण से तुमने ये सिद्ध कर दिया की तुम कठिनाइयाँ स्वयं झेलते हो सहन करते हो और दूसरों के भले की चिंता करते हो। इससे यह पता चलता है कि तुम सभी का कल्याण कर सकते हो। मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह अपने से अधिक दूसरों की भलाई की चिंता करे। यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। '
स्वामी विवेकानन्द माँ शारदा के समक्ष नतमस्तक हुए और आशीर्वाद लेकर अमेरिका गए।
रो दिए विवेकानन्द
ये बात है ११ सितम्बर १८९३ की। विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो स्थित आर्ट इंस्टिट्यूट पहुँच चुके थे। विभिन्न धर्मों के विद्वान लिखा हुआ पर्चा पढ़कर मंच से अपनी बात कहने लगे।
उस दिन स्वामी जी के पास कोई लिखा हुआ पर्चा ही नहीं था। नाम पुकारे जाने पर स्वामी जी ' अभी नहीं ' कहकर इस उधेड़बुन में पद गए कि क्या बोलें। कई बार नाम पुकारे जाने के बाद वह उठे और 'लेडीज एंड जेंटलमैन ' की जगह बोले ' ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका' । उनके यह बोलते ही करतल ध्वनि सभागार में गूंजने लगी।
देर तक बजने वालो तालियों ने उन्हें अपने वक्तव्य का विषय दे दिया। अब इन तालियों के प्रति आभार उनके अभिभाषण का अगला बिन्दु था। अपने परिचय में उन्होंने कहा कि ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ , जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति की शिक्षा दी है। साम्प्रदायिकता , असहिष्णुता और धर्मान्धता के राज के लिए विद्वद्जनों को उत्तरदायी ठहराते हुए उन्होंने सदन की निशब्द निरुत्तर कर दिया और इसे समाप्त करने क दायित्व भी उन्हीं के कंधों पर डाल दी।
लेकिन विश्व धर्म के इस सम्मेलन में इतना बड़ा सम्मान मिलने के बाजजूद जब वह अपने विश्राम गृह पहुँते तो फफक -फफककर रोने लगे। भारत की दरिद्रता, गरीबी , भूखमरी , गिरवी रखी आत्मा, खोया हुआ सम्मान उन्हें काँटे की तरह चुभने लगा। उनका रूदन एक बच्चे की तरह था। सभा में मिले सम्मान से उन्हें विरक्ति हो गयी। वह सोचने लगे कि उनकी जयनाद से भारतीयों का दुःख-दर्द तो दूर होने वाला नहीं है। उन्होंने कॉपी-कलम उठाई और लिखा,'
'यदि दुःख मिला है तो उसे जीतो। निर्बल हो तो बलवान बनो, क्योंकि दुर्बलों को ईश्वर नहीं मिलता है। '
यह था धर्म प्रधान स्वामी विवेकानन्द का देश प्रेम, जो देश के निचले पायदान के लोगों से उनके जुड़े होने की गवाही देता है। गरीबी और अशिक्षा को वह देश का दुश्मन मानते थे।
निशानेबाज स्वामी विवेकानन्द जी
स्वामी विवेकानन्द जी तब अक्सर विदेश यात्राओं में रहते थे। वहाँ आम लोगों के बीच जनसाधारण के बीच पहुँचकर भारतीय संस्कृति और इसकी गहन आध्यात्मिकता के बारे में छोटी छोटी घटनाओं से बड़ी सीख दे दिया करते थे। एक बार की बात है वह किसी देश में भ्रमण करते हुए एक पुल के समीप रूक गए। उन्होंने देखा की पुल पर खड़े कुछ युवक नदी में तैर रहे अंडों के छिलकों पर बंदूक से निशाना लगाने का अभ्यास कर रहे थे। ऐसा करते करते वे आमोद-प्रमोद भी कर रहे थे। उनमें एक अघोषित प्रतियोगिता चल रही थी कि कौन सही निशाना लगाता है। किसी भी युवक का निशाना सही नहीं लग रहा था।
स्वामी विवेकानन्द उन युवकों के बीच गए। उन्होंने एक युवक से बंदूक ली और निशाना लगाने लगे। उन्होंने अंडों के छिलकों पर पहला निशाना लगाया और वह बिलकुल सही लगा। फिर एक के बाद एक, उन्होंने कुल दस निशाने लगाए और सभी बिलकुल सटीक लगे। यह देख वहाँ उपस्थित युवक हैरान रह गए। उन्होंने पूछा, 'स्वामी जी, भला आप यह कैसे कर लेते हैं ? आपके सारे निशाने बिलकुल सटीक गए। आपने यह कला कहाँ सीखी ?
स्वामी जी बोले - 'जिंदगी में असंभव कुछ भी नहीं है, लेकिन असंभव को संभव बनाने के लिए एकाग्रता, तन्मयता और पुरुषार्थ की जरूरत होती है। तुम भी मेरी ही तरह निशाना सफलतापूर्वक लगा सकते हो, लेकिन इसके लिए तुम्हें एकाग्र होना होगा, अपना पूरा ध्यान निशाने पर केंद्रित करना होगा। दिमाग को उस समय उसी एक काम यानी निशाने पर लगाना होगा। अगर तुम किसी चीज पर निशाना लगा रहे हो तो तुम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए। तब तुम अपने लक्ष्य से कभी चूकोगे नहीं और तुम्हारा हर प्रयास सफल होगा। हमारे भारत में यही शिक्षा दी जाती है, बच्चों को यही पढ़ाया जाता है। '
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