Sunday, December 8, 2013

THARU FOLK SONGS (LOK GEET) OF WEST CHAMPARAN: CRYING FOR PRESERVATION ?

थारू लोक गीत: आवश्यकता  संरक्षण की     

(सभी  चित्र IPR के अंतर्गत  हैं )  


संचार क्रांति और वैश्वीकरण के युग में भी हमारे देश  के बहुत सारे क्षेत्र ऐसे हैं जो अविकसित हैं , उपेक्षित हैं।   उसी में से एक क्षेत्र  है बिहार राज्य का पश्चिम चम्पारण जिला।  यह धरती मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि, विदेह  जनक , भगवान बुद्ध , तीर्थंकर महावीर ,राजनीतिज्ञ  चाणक्य ,सम्राट अशोक ,राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ,उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ,आचार्य विनोबा भावे , गीतकार गोपाल सिंह 'नेपाली ' ,प्रख्यात निबंधकार -कवि -समीक्षक - पत्रलेखक रवीन्द्र नाथ ओझा की विचरण भूमि  या कर्मभूमि  रही है।  यह धरती वन सम्पदा तथा अन्न सम्पदा के मामले में भी काफी सम्पन्न रही है। 

पर दुःख की  बात है कि यहाँ की जनजातियाँ अभी भी  बदहाली की जिन्दगी गुजार  रही हैं।  हम भूल जाते हैं कि ये जनजातियाँ प्राचीन काल से ही हमारी लोक संस्कृति की संवाहक  एवं धारक रही हैं। हम भूल जाते हैं कि इनके भी अपने रीति -रिवाज  हैं , इनके भी गीत एवं नृत्य हैं , कला व संस्कृति है  - जो अपने आप में अनोखे हैं, अनुपम हैं, अदभुत हैं। 


Photo(c) Dr Ajay Kumar Ojha

चम्पारण के थारु जनजाति ( जो 2003  से  अनुसूचित जनजाति हो गए हैं ) की अपनी सभ्यता है , अपनी संस्कृति है, अपने गीत तथा लय हैं। किसी समय इनकी भी अपनी भाषा रही होगी पर आज तो इनकी भाषा भोजपुरी है जिसमें मैथिली तथा नेवारी का पुट है।  इनकी बोली में मनमोहक मधुरता है जो भोजपुरी की अन्य शाखाओं में विरले ही पाया जाता है।  



थारु जनजाति खेती-गृहस्थी से बचे हुए समय को नृत्य , गीत तथा वादन में व्यतीत करते हैं।  इनके गीतों में हम इनके क्षेत्र तथा समाज का सुख-दुःख ,मान-अपमान ,शकुन -अपशकुन आदि का सजीव चित्रण देख सकते हैं।  इनके गीत इनकी भूमि की उपज हैं , अपने में अनोखे व निराले हैं। आइए देखते हैं अनुपम थारु लोकगीत के कुछ अंश :


१ 
"कौन जइहें हाजीपुर , कौन जइहें पटना 
से  कौन  जइहें ,     बेतिया  नोकरिया।  
बाबा जइहें हाजीपुर ,भइया जइहें पटना 
    से  सइयाँ  जइहें ,  बेतिया     नोकरिया।
कौन अनिहैं सुहा -सारी  ,कौन अनिहैं कंगना 
से कौन अनिहैं हिरदया दरपनवा। 
बाबा अनिहैं सुहा -सारी भइया अनिहैं कंगना 
से सइयाँ अनिहैं हिरदया दरपनवा।" 


२ 
"अइसन करमवा लिखि  देला रे 
                    लिखि  देला  बिपति  हमार। 
घाम के घमाईल गइली बिरिछ  तर रे ,
                          से हो बिरिछा भइले  पतझार। 
घाम के घमाइल गइली जमुना दह  रे 
से जमुना भइली बलु रे रेत। 
पेट के जरल भीख माँगे गइली रे ,
से हो भीखा  भइली रे अलोप।  
  


"पुरुआ  त  बहले  पछ्वे  रे   ननदी ,
इरे गोरी  गोइठिया ना सुनुगे आग।  
मोरे  जिउआ  करइक दस मुठी रे , 
गोरिआ,कहमा बसे चित रे मोर। 
सहर बुलिये बुलि हाँक पारे गोरिआ 
हाँ रे गोरी सुनि लेहुँ बचन हमार। 
कवन घरे गोरिआ नू हे बाड़े जोड़ी जंतवा ,
हमहुँ तनिक पीसे जाईं। 
ऊँची त रे घरवा के नीची त दुअरिया ,
तवने घरे बाड़े जोड़ी जाँत। 


४ 
"दूर हट ,कुकुरा रे ,दूर हट बिलरिया
दूर हटु ,   नगरी  क   लोगवा    त 
पिया मोर परदेश गइले हे।  
नाही हली कुकुरा रे ,नाही हली बिलरिया,
खोल घनी बजर केवड़ियात 
पिया तोर लवट अइले हे। 
बोरसी में आगी नाही हे , दिया नहीं तेलवा 
झुझुरी के पनिया हाथ -गोड़ धोब हू 
सुतहू भुसुल घर हे। 
दुखिया के बेटी हे , सुखिया के पतोहिया 
तोर बाप रुपिया गिनवले त 
बोले लू गरम बानी हे। 
बोरसी में आगी बाड़े , दियना में तेलवा। 
कलसा के पनिया गोड़ -हाथ धोव हूँ 
सुतहूँ पलंग चढ़ी हे। 




५ 

झिरहिर झिरहिर नदिया जे बहे गोरी ,
तिरिया माछर मारे। 
झपटलि चिल्हिया हरइया लई गोलया ,
ओही रे सेमर कई डार। 
आरे आरे भैया भइसि चरवहवा ,
नाउँ ना जानीले तोहार। 
सेमर डार से हरईया घी चिबेतू 
तोरा मोरा भोग विलास।  


     



Photo(c) Dr Ajay Kumar Ojha


पर ये गीत इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। थरुहट क्षेत्र में घोर अशिक्षा होने के कारण इनका सही तरीके से संकलन तथा मुद्रण नहीं हो पाया है। इसीलिए इनको संकलित करके सुरक्षित तथा संरक्षित करने की आवश्यकता  है। आवश्यकता है गहन शोध की  ताकि इस अमूल्य धरोहर को आगे  की पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा जा सके अन्यथा कुछ वर्षों में इन लोक गीतों का धीरे - धीरे लुप्त होना निश्चित
 है।  






  

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