डॉ सुशीला ओझा के फेसबुक वाल से
माँ राधिका देवी (Radhika Devi) को समर्पित
" माँ ही ब्रह्म है ! "
डॉ सुशीला ओझा
डॉ सुशीला ओझा अपनी करुणामयी ममतामयी माँ राधिका देवी के साथ |
मैंने ब्रह्म को देखा नहीं,
माँ ही ब्रह्म है !
मैंने आकाशधर्मा माँ को देखा है,
उसकी गोद में शिशु रवि !
मेरे लालिमायुक्त, अनुरागमयी गालों को
सहलाती है माँ ...
खिल उठता है ह्रदय कमल,
खुलती है एक एक पंखुड़ी।
माँ केसर कुमकुम से देती है ,
नवजीवन का आशीर्वाद।
अपनी कोमल शीतल किरणों से ऊर्जस्वित करती ...
निशा नंदिनी बनकर आती, नहलाती अपनी ज्योत्सना से।
हमको अपने क्रोड़ में लेकर खेलती है जल थल में ,
लुटाती है मोतियों के अक्षय कोष, खिल उठती कुमुदनी।
माँ स्रष्टा है , द्रष्टा है,
कलात्मकता , रचनात्मकता की देवी है।
माँ की भूमिका अद्भुत है .....
कभी होठों को चूमती है शिशु किरणों से।
कभी अनुशासित करती है,
प्रखर किरणों से।
माँ स्वस्तिवाचन की मृदुल फुहारों से भींगाती,
बनती सावन की बूंदों से ...
माँ का ह्रदय सागर की तरह विशाल है .... अगाध है .....
दया, क्षमा, सहनशीलता, ममता, करूणा, प्रेम रत्न से भरे।
माँ शिल्पीमयी है, अनगढ़ चट्टानों से,
विकृतियों की काई हटाती है .... !
माँ के नैनों में नीर है,
हड्डियों को तोड़कर बहाती है अमृतधारा।
प्रसव पीड़ को झेलती ,
वक्ष में भरी पयस्विनी धारा है।
माँ महिमामयी है ,
शिल्पी है, अद्भुत चित्रकार है !
माँ वटवृक्ष की गहन छाँव है ,
उसके अंक में चंदन की शीतलता है .... !
वाणी में मयूरों की केका,
पंखों में अनगिनत आँखें।
माँ वसंतमालती है ... प्यार से बाँहों में भरती है ...
माँ हरश्रृंगार है, दिव्य गंध से आशीर्वाद बरसाती है .... !
निर्झरिणी सी पावन ,
नैनों में प्रेम नदी छलकाती है .... !
अपूर्व है माँ का प्रेम डगर ...
जिसमें प्रेम है, पीड़ा है, नेह है, हर्ष है ...
अश्रुपूरित आँखें
पावस सी हैं।
है किसको इतनी हिम्मत,
वात्सल्य रस की,
पीयूष धारा से ....
"बचिया" पुकारने को ... !
हरहराती नदी की तरह,
खूँटे से टूटे गोवत्स की तरह दौड़े।
मेरे एक रंभाने से ,
बन जाती है पीयूषवर्षिणि .... !
धन्य हुई सत् चित आनंदमयी भावों की प्रेममयी वर्षिणी .... !
साश्रुनयन से धोए तेरे पग को।
बारंबार
भाल पर तिलक लगाऊँ .... !
भावों की थाली में शब्दों के पुष्प,
दिव्य कर्पूर गंध से आरती उतारूँ .... !
माँ तुम अपरिभाषित हो ...
अवर्णनीय हो, अप्रमेय हो ... !
शब्दों की परिधि में,
तुम नहीं बंधती।
तुम अलौकिक हो .... अद्भुत हो ..
साकार हो, निर्विकार हो ... !
तुम शब्दों से परे, शब्दातीत हो माँ ...
स्वीकारो मेरा वंदन अभिनन्दन ... !
डॉ सुशीला ओझा
( साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी ) पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, महिला महाविद्यालय बेतिया, पश्चिम चम्पारण, बिहार