Friday, December 27, 2019

ब्राह्मी वेलायां शूकरदर्शनं - प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा

ब्राह्मी वेलायां शूकरदर्शनं - प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा 



ब्राह्मी वेला सचमुच कोई चीज  है  - एक विचित्र चीज , एक विचित्र कालखंड , एक विचित्र दिव्य भावानुभूति।  पहले ब्राह्मी वेला, ब्रह्म मुहूर्त के महत्व या महिमा को नहीं जानता था , नहीं समझता था।  सोचता था , होगी कोई ब्राह्मी वेला जैसे प्रभात वेला होती है , दोपहरी होती है , अधरतिया होती है। ऋषिलोग ऐसे ही जपतप करते -करते कुछ पागल से , कुछ विक्षिप्त से हो जाते हैं। उन्हीं के पागल दिमाग की खुराफातें हैं ये देवी-देवता, यह पूजा, यह अर्चना ,यह वंदना , यह व्रत ,यह उपवास ,यह तीर्थ ,यह धाम , यह नियम ,यह विधि -विधान ; नाना तरह की फितराती बातें , नाना किस्म की खुराफातें , क्या कहना ऋषियों का ? काम तो दूसरा था नहीं , बैठे बैठे खाना और बस यही खुराफात रचना। बच्चे लोग आज के ज़माने में होते तो धनिया - नीमक का भाव मालूम होता, आटे - दाल का भाव मालूम होता , नीमक-तेल - धनिया , लस्टम -पस्टम का इंतज़ाम करते -करते उनका सारा दिमाग दुरुस्त हो जाता , सारा ऋषित्व गायब हो जाता।  अब क्यों नहीं ऋषि पैदा होते हैं ? अब क्यों नहीं वेदों , उपनिषदों , आरण्यकों , ब्राह्मण ग्रंथों, शास्त्रों - पुराणों , स्मृतियों , षड्दर्शनों की रचना होती है ? अरे एक जमाना हुआ, हुआ --------------

पर इधर कम -से - कम एक बात में ऋषियों की अनुभूतियों को दाद देने लगा हूँ।उन्होंने जो रात्रि के चौथे पहर का नाम ब्राह्मी वेला रखा, ब्रह्म मुहूर्त नाम दिया। जब से स्वयं मैं तीन बजे सुबह में उठने लगा हूँ , जब से मैं उस वक्त की तारिकाओं सहित चंद्र किरणियों को देखने लगा हूँ, जब से अपने तन-मन आत्मा पर ब्राह्मी बयार का दिव्य सुखद , आनंदप्रद , स्फूर्तिप्रद, पुलकन  - संस्पर्श का अनुभव करने लगा हूँ, जब से उस वेला में मुझमें ब्राह्मी भाव जागने लगे हैं तब से इन पागल , सिरफिरे, फितराती , शरारती , खुराफाती  ऋषियों पर कुछ - कुछ विश्वास होने लगा है , कुछ - कुछ श्रद्धा -स्नेह जगने लगा है।  लगता है ऋषियों ने हर बात का , हर समय का सूक्ष्म अध्ययन - अनुभव किया था। लगता है ऋषियों ने हर घटना , हर स्थिति , हर भाव का वैज्ञानिक, मनन -विश्लेषण किया था।  लगता है उन्होंने विशालतर , गहनतर और सूक्ष्मतर जीवन की  सूक्ष्मतम अनुभूति की थी और अपनी अनुभूति के आधार पर ही अपनी तार्क्य  शक्ति , अपनी तर्कणा का सहारा ले उन्होंने यह सब रचा , यह सब नामकरण किया। 

तो अब मैं कम -से -कम एक बात में ऋषियों का कायल हूँ, उनका प्रशंसक हो चला हूँ। अब मैं ब्राह्मी वेला के महत्व को समझने लगा हूँ। वास्तव में ब्राह्मी वेला ही वह वेला है जिसमें ब्राह्मी भाव जगते हैं।  वह वेला ही ऐसी पुण्यमयी, प्रभामयी, अमृतमयी वेला है जिसमें मानव - मन अनायास जीवन की गहराई में प्रवेश कर जाता है , जीवन के विराट सत्य का , विराट भाव का साक्षात्कार करने लगता है। अनायास मन में दिव्य अलौकिक भाव विचार उठने लगते हैं।  मनुष्य अनंत जीवन का स्वाद लेने लगता है।

तो अब मैं कोशिश करने लगा हूँ कि और समय भले ही मैं सोऊँ या दूसरा कोई काम करूँ पर ब्राह्मी वेला में अवश्य जगूँ।  उस समय, उस वातावरण,  उस शांति , उस ताजगीपन , उस अमृत बयार, उस अमृत पूरित ज्योतिमंडित नभमंडल  और धरती के दिव्य सुख का आनंद लूँ।यह समय चौबीस घंटों में सबसे महत्वपूर्ण समय है , सबसे महिमामय वरदानों से भरा  -  मैं चाहता हूँ कि उस समय का वरदान, उस दिव्य  ब्राह्मी भाव का मुझमें अखंड अबाधित प्रवाह होता रहे , इसलिए उस वक्त मैं किसी पुस्तक या ग्रन्थ का भी पाठ नहीं करता , कोई स्तुति -स्तोत्र , पूजन -वंदन भी नहीं करता। अपने को सब कर्मों , बंधनों , नियमों से मुक्त रखता हूँ। रिक्त घट की तरह, ताकि ब्राह्मी  भाव चारों ओर से आ -आकर मेरे घट को भरे।  मैं अपने दिल -दिमाग , अपने व्यक्तित्व के सारे खिड़की , झरोखे , सारे द्वार - दरवाजे , सारी कपट किवाड़े खोल देता हूँ ताकि ब्राह्मी बयार और ब्राह्मी भाव का हर झोंका , हर लहर , हर तरंग, हर कंपन , हर गति - द्युति मेरे व्यक्तित्व में निर्विघ्न अपने सहज शुद्ध रूप में प्रवेश कर जाये और आपसे सच बतलाऊँ ! आप विश्वास करेंगे। मैं घंटे आध घंटे के लिए बिलकुल ब्राह्मी भाव से भर उठता हूँ, इतना भर जाता हूँ कि भावाप्लावन होने लगता है , रसानंद बाहर  बहने लगता है जो मेरे शरीर और कमरे और आँगन -घर में नहीं अंट पाता तब मैं घर -आँगन छोड़ विराट - प्रसार की ओर निकल पड़ता हूँ।  आह क्या शांति !क्या नीरवता ! क्या धरा का ज्योति - अभिषेक ! अनंत नीलांबर असंख्य ज्योति प्रकंपनों द्वारा अपना विराट अमृत कलश उड़ेल रहा है  जनम - जनम से, युग - युग से इस क्षुधित , पिपासित धरती पर ! आह , इस नितांत शांत -एकांत में आकाश और धरती का कितना प्यार ! मैं निढाल हो जाता हूँ , धरती - आकाश के इस भाव - विभोर प्रेमालाप , इस विमुग्ध प्रणय - चेष्टा , इस प्रगाढ़ आलिंगन को देखा। 

इसी ब्राह्मी वेला में ब्राह्मी भाव से पूरित मुझे अपनी कॉलोनी में जगह - जगह सड़क किनारे , सड़क के मोड़ों पर , चौराहों पर शूकर भगवान के दर्शन होते हैं। शूकर  देवों के झुण्ड - के - झुण्ड , शूकरों का पूरा समाज - समुदाय पूरा सक्रिय है उस वेला में।  श्वेत शूकर , श्यामल शूकर , ज्यादातर जवान शुकर , पुष्ट बलिष्ठ दीर्घ काया लिये , सबल स्वास्थ्य के अधिकृत प्रमाण उन्हें देखकर मन मस्त।  वाह ! स्वास्थ्य ऐसा ही होना चाहिए और ऐसी ही तत्परा क्रियाशीलता।  ये सारे के सारे शूकर देव ब्राह्मी वेला में ही उठकर अपने यज्ञ में, अपने व्रत - अनुष्ठान में पूरी हार्दिकता के साथ ,  व्यक्तित्व के पूर्ण समर्पण के साथ, पूरे भावावेग से लग गए हैं।  वे शूकर मानव कृत , मानव संग्रहित  कुकर्मों का सर्वग्रास कर रहे हैं।  मानवों ने धरती को नाना तरह के मल मूत्रों, कलुष, कल्मषों , कलंक -  कालिमाओं से भर दिया है। मानवों को कहाँ चिंता है कि इन मलमूत्रों का , इन गंदगियों का , इन सड़ी -गली वस्तुओं का वातावरण पर क्या असर पड़ेगा , धरती कितनी दूषित हो जाएगी , वातावरण कितना प्रदूषित हो जाएगा, कितना विषाक्त ; जीवन के लिए , जिजीविषा के लिए कितना खतरा उपस्थित हो जाएगा।  ये मानव राक्षस हैं , दानव हैं ; जीवन के विध्वंसक , धरती के नाशकर्ता।  ये मानव बड़े स्वार्थी - संकुचित -संकीर्ण दृष्टि के हैं, उन्हें केवल अपने ही खाने - पीने , पहनने - ओढ़ने , ऐश -जैश की चिंता है।  बस, यही उनकी दुनिया है , यही उनका संबंध सरोकार। 

मानव द्वारा संचित विष को ये शूकर - शंकर हलाहल की तरह पी रहे हैं। मानव जाति के सामूहिक कुकृत्य के लिए , सामूहिक पाप के लिए ये शूकर मसीहा क्रॉस झेल रहे हैं , सूली पर चढ़ रहे हैं।  वाह  रे शूकर भगवान ! वाह रे वराहावतार ! एक बार  पुराकाल में शूकर रूप में यानी वराह रूप में जलमग्न धरती का अपने दीर्घ प्रपुष्ट दाँतों से पकड़ उद्धार किया था।  वसुंधरा, वराह द्वारा ही उद्धृत हुई थी उस संकट काल में , आपात काल में। तब से लेकर आज तक वराह देव के वंशज धरती का पुनः पुनः उद्धार करते आ रहे हैं।  जब जब ब्राह्मी वेला में इन शूकर समुदायों को देखता हूँ तो मुझे पुरानी पौराणिक कथा याद आती है। भगवान का वराहावतार।  उसी वराह भगवान के वंशज हैं , ये शूकर देव , उन्हीं के पुत्र , पौत्र , उन्हीं की वंश -परंपरा  - देखिए कितनी चुस्ती - मस्ती और स्फूर्ति से ये मल पुंज का विध्वंसन कर रहे हैं।  मलों का ढेर का ढेर मिनटों में स्वाहा हो रहा है और एक जगह अपना मिशन पूरा कर , अपना व्रत निभाने दूसरी जगह मलविध्वंसन - यज्ञ में दौड़ पड़ते हैं।  इस ब्राह्मी वेला में देख रहा हूँ जगह - जगह इन शूकर देवों के मलविध्वंसन  यज्ञ  चल रहे हैं , जिनके पुरोधा और ऋत्विक सब कुछ ये ही हैं।  ये दूसरों की मदद नहीं लेते , किसी से चंदा इकट्ठा नहीं करते , स्वयं अपने बल पर सारा यज्ञ आयोजित करते हैं और पूरी शांति - पूर्वक विभिन्न यज्ञों का सफलता पूर्वक समापन करते हैं , न कहीं प्रचार करते हैं , न विज्ञापन , न कहीं परची  निकलते हैं, न पोस्टर, न कहीं माइक से प्रचार करते हैं और न ही लाउड -स्पीकर का कोई इस्तेमाल। इनकी पूरी ख्वाहिश रहती है कि घरों , दरवाजों , खिड़कियों से जो मानव कहे जाने वाले द्विपद पशु बंद हैं उनकी कुम्भकर्णी निद्रा में या उनके ऐश आराम में या उनके मधुर - स्वप्नों में थोड़ा भी खलल न पहुँचे, तनिक भी डिस्टरवेंस न हो।  देखिए, ये मानवों का कितना ख्याल रखते हैं,  उनके कितने बड़े हितैषी  हैं और शुभचिंतक हैं , और वे ये भी चाहते हैं कि मानवों के जागरण के पहले ही उनके यज्ञ समाप्त हो जाएँ ताकि वे मानव मल पुंजों का दर्शन या उनका प्रभाव ग्रहण न कर सकें , न ही शूकर दर्शन ही क्योंकि वे शूकरों को गन्दा मानते हैं और उनसे घृणा करते हैं।

मानव - पशु , शूकरों के विषय में सोचें या न सोचें, उन्हें घृणा  करे या दंड प्रहार करें , उन्हें नीच गंदा जानवर समझें पर ये शूकर मानवों के हित चिंतन में बराबर लगे रहते हैं।  उनका जीवन ही मानव की हितसाधना के लिए , उनके मलमूत्र के नाश के लिए समर्पित है।  और सेवाव्रत और परोपकार भावना का फल देखिए  - शूकर  इतने स्वस्थ बलवान हैं , इतने दीर्घजीवी , ऊर्जा से पूरित कि क्या सैकड़ों रूपया रोज खा -पीकर कोई पहलवान होगा।  मानव पशु रोज माँस खाते हैं , अंडा चबाते हैं , फल खाते हैं, दूध -दही सेवन करते हैं, ऊपर से टॉनिक पीते हैं , पर है किसी मानव की ताकत जो शुकर का सामना कर सके। 

उन शूकरों को देखते ही मानव पशु अपनी दुम दबा का घर में भाग जाता है, दरवाजा खिड़की बंद कर लेता है और शूकर बेचारा इतनी शक्ति , इतना बल रखकर भी कितना संयम से काम लेता है , कितना धैर्य से।  कभी किसी पर क्रुद्ध नहीं होता , किसी पर आक्रमण नहीं करता , किसी के घर में नहीं घुसता , किसी को शाप नहीं देता।  मानवों से अलग , दूर रहकर ही विशेषकर अंधेरे में ही अपना काम , अपना महान सेवा व्रत निभाता है। 

मुझे प्रसन्नता होती है जब सुबह - सुबह घर से बाहर होते ही शूकर देवों के दर्शन होते हैं।  मैं उनमें शंकर और ईसा मसीह के मिलित रूप का दर्शन करता हूँ। ब्राह्मी वेला , ब्राह्मी बयार , ब्राह्मी भाव के अनुरूप ही उनका चरित्र , व्यवहार, कर्त्तव्य - मिशन , कर्म निष्ठा है।  मैं उनसे प्रेरणा ग्रहण करता हूँ , सोचता हूँ काश ! मैं भी शुकर होता -  इसी तरह ब्राह्मी वेला में मल विध्वंसन समारोह में शामिल। 

मैं अपनी कॉलोनी को वराह - क्षेत्र कहता हूँ।  आजकल इतने शुकर देव ब्राह्मी वेला में एकत्रित हो जाते हैं जैसे त्रिवेणी संगम के कुंभ के अवसर पर स्नानार्थी। ये सारे शूकर ऋषि महर्षि है , साधक -तपस्वी हैं , योगी - महायोगी हैं , साधु -संत हैं जो विभिन्न स्थानों से आ -आकर हमारी कॉलोनी के वराह क्षेत्र में तपोरत योगरत हो जाते हैं। 

और जब मैं अपनी कॉलोनी के विशाल वराह - क्षेत्र को छोड़कर हजारी (बगीचा ) के विशाल प्रांगण में प्रवेश करता हूँ तो वहाँ उलूक दर्शन होते हैं।  श्मशान विहारी ये उलूक मुझे फिर शंकर की याद दिलाते हैं।  ये उलूक असली ब्राह्मी भाव से ओत -प्रोत  रहते हैं।  अभी सारे पक्षी शयन कक्ष में हैं , नीड़ -विहार कर रहे हैं पर रात्रि में जागने वाले , अंधकार में देखने वाले ये सिद्ध तापस योगी ब्राह्म -बयार का , ब्राह्मी भाव का आनंद ले रहे हैं, निर्विकार भाव से अलख जगा रहे हैं। 

ब्राह्मी वेला में मैं जब बाहर निकलता हूँ तो तीन ही जीव समुदाय मुझे आकृष्ट करते हैं, मेरे समान धर्मा लगते हैं - इधर सरोवर में राजकवृन्द जो ब्राह्मी वेला में मानवों के वस्त्रों का मल निर्मोचन कर रहे हैं , क्या सिद्ध -साधक योगी हैं ये राजकवृन्द।  हमारी  तरह ही ब्राह्मी वेला में ब्राह्मी भाव से ओत - प्रोत माघ -पूस की बर्फानी शीत में भी, ठंडे पानी में योग साधन करते रहते हैं।  मानव वस्त्र प्रक्षालन करते रहते हैं और फिर ये शूकर वृन्द और फिर ये उलूक वृन्द श्मशान में, जंगल बियावान में मसान जगा रहे हैं , अलख जगा रहे हैं। 

मुझे ख़ुशी है कि इस वेला में मुझे मनुष्यों से भेंट नहीं होती  -  मेरी ब्राह्मी वेला का अबाध -प्रवाह चलता रहता है।  जब तक ये नर पशु जागें , जब तक ये मानव -रूप दानव , शय्या परित्याग कर सड़क पर बाहर आयें तब तक मैं फिर अपने कक्ष में पर्दानशीन हो जाता हूँ। 


प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा 
"निर्माल्यं" निबंध - संग्रह से 
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