Thursday, December 26, 2019

"कुत्ते ही प्यार करना जानते हैं" - प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा

"कुत्ते ही प्यार करना जानते हैं"  - प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा  




"जब पर्वत को ऊँचाई से प्यार करते देखता हूँ , वन को सघनता से , सरिता को प्रवाह से , निर्झर को वेग से , मेघ को सजलता से , धरती को आकाश से ,   तब लगता है प्यार एक सनातन क्रिया है ,   शाश्वत प्रक्रिया है , सृष्टि की प्रकृति है , साधना की सिद्धि है , प्राणों की ऋद्धि है , जीवन की समृद्धि है। "



 चित्र  डॉ अजय कुमार ओझा 

 चित्र  डॉ अजय कुमार ओझा 



पहले सोचता था , प्यार करना मनुष्य जाति का ही धर्म है , कर्म है , मानव जाति की ही बपौती है , Monopoly है।  बहुत खुश रहता था कि चलो कम - से - कम एक गुण में हमलोग पशुओं से आगे हैं , पक्षियों से आगे हैं , कीट - पतंगों से आगे हैं। 

पर अब देखता हूँ कि प्यार सभी करते हैं चेतन -अचेतन , पशु -पक्षी , कीट - पतंग , वनस्पति भी , वृक्ष भी।  अब लगता है प्यार सार्वदेशिक , सार्वकालिक , सर्वप्राणिक क्रिया - कलाप है।  प्यार ही जीवन है , जीवन ही प्यार है। जहाँ प्यार है वस्तुतः वही जीवन है , जहाँ जीवन है वही प्यार है।  मुर्दे ही शायद प्यार नहीं करते होंगे अथवा प्यार न करने वाले मुर्दे ही होते हैं जिनमें सड़न , दुर्गन्ध और गंदे - कीड़े पड़ जीवन जाते हैं।  तो जब पर्वत को ऊंचाई से प्यार करते देखता हूँ , वन को सघनता से , सरिता को प्रवाह से , निर्झर को वेग से ,सागर को विस्तार से , मेघ को सजलता से , धरती को आकाश से तब लगता है प्यार एक सनातन क्रिया है , शाश्वत प्रक्रिया है , सृष्टि की प्रकृति है , सृजनशीलता की विशिष्टि है , साधना की सिद्धि है , प्राणों की ऋद्धि है , जीवन की समृद्धि है। 

आखिर यह प्यार है क्या बला ? है कौन सी अनुभूति ? कौन सी क्रिया - प्रक्रिया - प्रतिक्रिया ? जब एक खंड जीवन अपनी खंड़ता को तोड़ अखंड होने का प्रयास करता है , जब एक सीमित बद्ध जीवन अपने सारे बंधन को तोड़ असीम अनंत होना चाहता है , जब जीवन , जीवन के  प्रति आकृष्ट होता है , प्राण - प्राण के प्रति आमंत्रित , जब जीवन एक अजीब प्रसार की भावना से व्याप्त हो जाता है, जब हम अपनी क्षुद्र स्थिति को भुला एक व्यापक सत्ता की अनुभूति करने लगते हैं , जब हम एकाकी एक से अनेक होना चाहते हैं , जब "एकोअहम् बहु स्यामः" की मनःस्थिति की उद्भूति हो जाती है , जब हम अपनी सत्ता को दूसरी सत्ता में डुबो देना चाहते हैं और एकत्व लाभ करना चाहते हैं तो भावना की इसी स्थिति को , दृष्टि की इसी भंगी को , उछाह की इसी भंगिमा को , इसी प्रक्रिया को प्यार कहते हैं।  प्यार एक expanding process है , एक प्रसरणशीला प्रक्रिया है , एक विस्तार खोजने और पाने की प्रचेष्टा है , अपने व्यक्तित्व को दूसरे व्यक्तित्व में खो देने या डुबो देने का उतावलापन है , आह्लाद है।  प्यार दो को जोड़ता है।  यह योजक - संयोजक है , विभाजक नहीं , संकोचक नहीं। 

प्यार जीवन का अमृत है , घृणा जीवन का विष।  प्यार जीवन की नैसर्गिक स्थिति है , घृणा  जीवन की विषाक्त विकृति।  प्यार ह्रदय की साम्यावस्था है , समरसता है , घृणा  रसभंग , रसवैषम्य। 

जीवन में विष ज़्यादा है अमृत कम , दुर्गन्ध ज़्यादा है  सुगन्ध कम , शूल ज़्यादा है फूल कम , मरुभूमि ज़्यादा है उद्यान कम , घृणा  ज़्यादा है प्यार कम ,  इसलिए जहाँ कहीं मुझे अमृत के दर्शन होते है उसे संजोता हूँ , जहाँ कहीं प्यार के दर्शन होते हैं उसे सहेजता - संगेरता - बटोरता हूँ।  लोग कहते हैं तुम गंदगी नहीं देखते , उन्हें क्या कहूँ , गंदगी सर्वत्र इस कदर भरी पड़ी है , बिखरी हुई है , उसे देखने की क्या ज़रूरत ? वह तो स्वयं दीख रही है , जगह -जगह , हर जगह , हर पल , हर क्षण , हर पग , हर डग , आप आँख मूँद भी लें तो भी वह इतनी ज़बरदस्त है कि अपनी उपस्थिति आपको जतला ही देगी। इसलिए इस सर्वव्याप्त , सर्वव्यापक , सर्वग्रासिनी गंदगी की बात कौन करे ? बात करनी है तो सफाई की बात हो , स्वच्छता की बात हो , प्यार की बात हो।  बटोरना ही है तो अमृत बटोरा जाए जो दुर्लभ है , अल्प है , स्वल्प है। 

उस दिन शाम में स्टेशन पहुँचा कुछ मन की थकान मिटाने  के लिए, कुछ मानसिक तनाव से मुक्ति के लिए।  स्टेशन अच्छी जगह है जहाँ तरह - तरह के लोग , तरह तरह की मनःस्थिति में मिलते हैं।  जहाँ तरह -तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं।  घंटे आध घंटे के लिए ज़बरदस्त भीड़ -भाड़ होती है, ज़बरदस्त चहल - पहल, गहमा - गहमी , गर्मा - गर्मी , जीवन का ज्वार और फिर एक भयानक सूनापन, भीषण शांति  - श्मशान की , कब्रिस्तान की , निर्जन बियाबान की। सर्वत्र मुर्दनी , मनहूसियत छा जाती है जैसे जीवन सदा के लिए hospitalized हो गया हो या शवागार में रख दिया गया हो। 

उस दिन जब स्टेशन पहुँचा तो ज़्यादा लोग नहीं थे।  गाड़ी आने में देर थी , न घंटी बजी थी , न सिगनल डाउन था , न टिकट की खिड़कियाँ खुली थीं।  पूरी शांति थी स्टेशन पर।  चना - चबेना , पकौड़ी और घुघनी बेचनेवाले , चाय - पानवाले कुछ active थे और Book Stall भी थोड़ा थोड़ा रुक -रुक कर साँस ले रहा था।  कुछ देहाती टाइप लोग पकौड़ियों की दुकान पर मँडरा रहे थे , कुछ भूजे की दुकान पर। कुछ बाबू लोग चाय पी रहे थे , कुछ पढ़े - लिखे लोग अख़बार - पत्रिका उलट रहे थे। इन दुकानों का ही फक्र था , उन्हीं का श्रेय था कि गाड़ी के अभाव में भी स्टेशन पर जीवन को कुछ जोगा के रखा था।  यदि ये भी नहीं रहते तो अंधेरे में स्टेशन पर सियार हुँआ - हुँआ करते रहते और सियारिनें फेंकरती रहतीं। इन जीवनप्रेमी या जीविका - प्रेमी दुकानदारों को हमें जीवन की ओर से शुक्रिया अदा  करनी ही होगी। 

मैं लोगों से दूर खुले आसमान के नीचे एक एकांत बेंच पर बैठ गया। मेरी दृष्टि पूरब दिशा के खुले आकाश और मुक्त पथ की ओर चली गयी।  अंधेरी रात में पूरब दिशा और अनंत , और गहरी लगने लगी , रत्नगर्भा ज्योति - प्रसविनी , सुहागिनी जैसी। आकाश अनंत टिमटिमाते ताराओं से झलमल झिलमिल था। कभी अंधकार भी प्यारा हो जाता है और तारों भरा आकाश तो अद्भुत सुहावन, मनभावन।  सुदूरवर्ती तारों से वैसी ही प्रीति हो जाती है , जैसे घर के सुदीप से , चन्द्रमुखी गृहिणी से। 

स्टेशन पर यात्री इक्के दुक्के आ जा रहे हैं।  मैं उनको गौर से देखता हूँ - उनके मुख , कपड़े - लत्ते , उनकी चाल ढाल।  सभी - के - सभी परेशान लगते हैं , दुःखी , विपन्न , चिन्तित , कातर लगते हैं।  उनके जीवन में कोई रस नहीं , कोई माधुर्य नहीं। उनका जीवन रिक्त घट है या सूखी सरिता।  न दिल में प्रेम पलता है , न आँखों में सपने छलकते हैं , दिल सूखा है और आँखे ज्योतिहीन।  ये गारे हुए नींबू या चीभे -चूसे हुए गन्ना या पढ़े हुए अख़बार या फिर मसली हुई कलिका या तुषा रहत उद्यान की तरह लगते हैं। क्या देखूँ इन दर्द भरे चिन्ताग्रस्त , परेशानीग्रस्त इंसानों को ? अच्छा तो होता कि आकाश के मधुर - मधुर , मंद -मंद बिहसित ज्योतित तारावलियों को ही निहारा करूँ।  उनमें तो कोई चिन्ता, परेशानी नहीं दिखती।  वे तो अपने प्यार का दीप हमेशा जलाये रखते हैं , उनका स्नेह कभी नहीं सूखता , उनकी बाती कभी नहीं बुझती। 

पर एकाएक इसी सूखी विपन्न धरती पर भी चल रहे प्रेमामृत प्रवाह पर दृष्टि निबद्ध हो जाती है , आँखें अटक जाती हैं।  मानवों की दुनिया से अलग , उनकी चिन्ता - परेशानी की दुनिया से बिलकुल अनभिज्ञ अप्रभावित दो कुत्तों के ह्रदय में न जाने कहाँ से प्रेम का पारावार उमड़ आया है , प्रेम का दुर्दान्त निर्झर फूट पड़ा है।  मानव पद दलित , इंसानी पैर मर्दित गंदगी - धूल भरे प्लेटफार्म पर जान - प्रभाव से बिलकुल कटे - छंटे , अलग - थलग , ये कुत्ते आपस में प्रेम की दरिया बहा रहे हैं। मैं देखता हूँ ये एक -दूसरे के शरीर पर प्रेम विभोर हो उछल रहे हैं , कूद रहे हैं।  एक -दूसरे को चूम  रहे हैं , चाट रहे हैं , पकड़ रहे हैं, काट रहे हैं , कोई किसी का मुँह पकड़ता है , कोई टाँग , कोई पूँछ , कोई पेट , कभी एक दूसरे पर चढ़ जाते हैं  कभी एक दूसरे पर  पड़ जाते हैं , कभी एक - दूसरे पर अड़ जाते हैं , कभी एक - दूसरे पर गड जाते हैं , कभी एक -दूसरे से लड़ जाते हैं , कभी एक -दूसरे के मुँह में मुँह घुसा लेते हैं , कभी पैर से पैर मिला लेते हैं , कभी छाती से छाती, पेट से पेट।  गजब की आनंद लीला चल रही है उनकी , गजब की प्रेम -विह्वलता , कभी -कभी आपस में काटा - कूटी भी कर लेते हैं , गुस्साने -गुर्राने का भी स्वांग रचते हैं , अलग भी हो जाते हैं , कुछ दूर भी चले जाते हैं , फिर उसी नियत स्थान पर जुटकर प्रेम लीला शुरू कर देते हैं।  पता नहीं यह उस खास जगह का संस्कार है या शुद्ध उनका अपना। 

प्रेम -क्रीड़ा का यह दृश्य - दर्शन अद्भुत लग रहा है मुझे।  ये कुत्ते अपरिचित ही होंगे।  कोई एक गाँव का होगा , कोई दूसरे गाँव का , कोई एक मुहल्ले का होगा , कोई दूसरे मुहल्ले का. कोई ब्लड रिलेशन नहीं , कोई भी relation नहीं।  ऐसे दो अज्ञात अपरिचित की तरह हठात मिल गये हैं।  इन्हें भोजन भी नहीं मिलता होगा , प्यार भी नहीं।  इन्सानों से इन्हें कोई सम्पर्क मालूम नहीं होता।  ये बिलकुल फ्री हैं Human Influence से, मानव के कुसंस्कारों से , दुष्प्रभावों से मुक्त हैं , जीवन को असल रूप में जी रहे हैं।  सच पूछिए तो जीवन का आनंद ये ही ले रहे हैं।  शुद्ध अकृत्रिम सर्वातिशायी प्यार क्या है , उसका स्वाद, उसका मजा , उसका अवगाहन ये ही कर रहे हैं।  प्यार जीवन का ज्वार है , ह्रदय का प्रसार है , प्राणों का विस्तार है। प्यार में एक बेसुधता है , एक आप्लावी आनंद है , एक स्वर्गिक उछाल है।  प्यार सारी सीमाओं का , सारे बंधनों का हनन है , सारी ग्रंथियों का टूटन है , भ्रंशन है , प्यार मुक्ति का अनुभवन है। प्यार चांदनी है , अमृत है , सुवास है , संगीत है , प्यार जीवन की शुभ -लक्ष्मी है, जीवन का सर्वाधिक शोभित रूप , अनुभूति - स्थिति।  इन कुत्तों का प्यार motivated प्यार नहीं है , इसमें कोई डिजाइन नहीं , यह स्वतः स्फूर्त inspired प्यार है।  यह प्यार किसी सोच - समझ से या किसी intention से या किसी planning से या किसी purpose से नहीं हो रहा है। यह प्यार यों ही हो रहा है , चल रहा है , घट रहा है , घटित हो रहा है। दो दिल मिल रहे हैं , दो व्यक्तित्व मिल रहे हैं, दो सत्ताएं एकाकार , एक भाव हो रहीं हैं , प्यार की एक उफान आयी है। दोनों में प्यार चल रहा है बिलकुल शुद्ध -निर्बंध , निर्मुक्त कोई शर्त -वर्त नहीं , कोई लक्ष्य प्रयोजन नहीं। बस , इनका प्यार अपने में ही सबकुछ है , स्वयं पर्याप्त है, सुधामृत है। प्यार के क्षीर सागर में ये संतरण कर रहे हैं , गोटा लगा रहे हैं।  यह प्यार मुर्दों को जिंदगी देनेवाला है , जिंदों को हर्षोल्लास देने वाला है।  मैं सोचता हूँ क्यों नहीं स्टेशन के सरे लोग इन कुत्तों की प्रेमलीला को देखते ? क्यों नहीं इनसे सीखते हैं कि जीवन कैसे जीया जाता है?  प्यार कैसे किया जाता है ? आधे घंटे तक अपनी दिव्य प्रेमलीला रच कर कुत्ते पुनः अज्ञात दिशाओं में विलीन हो गए। 


II

कल सुबह प्रभात -परिभ्रमण से लौट रहा था , फिर कुत्तों की एक जमात देखी। ठीक सड़क पर ही चार - पाँच कुत्ते  -  काले, लाल, उजले प्रभात की स्निग्ध वेला में वसंत की स्फूर्तिभरी  शीतल बयार में।  उनका प्रेम भाव अतिशय प्रबल हो चुका  था। उनके दिलों में प्रेम का जागरण हुआ था या विस्फोटन भी कह लें , उनके दिल प्रेमामृत से उमड़ रहे थे , उछल रहे थे , शरीर अपने वश में न था। कुत्तों का शरीर अपने भीतर प्रेम के प्रवाह को ढोने में असमर्थ पा  रहा था। मैं दंग रह गया इस दृश्य को देखकर।  कुत्ते जैसे चुस्त और फुर्तीले जीव आज प्रेम भाव के प्रभाव से बोझिल लगते थे। उनके पैर प्रेमातिरेक से लड़खड़ा रहे थे , वे बेहोश जैसे थे , बेसुध जैसे थे , लगता था वे अपने में नहीं हैं , कोई दूसरी सत्ता उन्हें दबोच बैठी है , कोई दूसरी अनुभूति उन्हें निगल गई है , कोई दूसरा बहुत उन पर सवार है।  लगा कि वे नशे में हैं , भंग के या सुरा के या प्रेम परी के।  लड़खड़ा रहे हैं वे, रास्ता ठीक से नहीं चल प् रहे हैं , बेसुध हैं वे , प्यार के नशे में डूबे हैं वे।  चारों - पाँचों  कुत्ते अपने को एक -दूसरे पर निछावर कर रहे हैं।  कोई किसी की सुनता नहीं है , अपने -आप को लुटाते जा रहे हैं।  पता नहीं इन सबों के पास प्रेम का कौन सा निर्झर फूट पड़ा है।  कौन सा भाव -प्रवाह अचानक आ गया है कि वे अपने को पूरी तरह लुटा देने में ही सर्वस्व लाभ कर रहे हैं या अलभ्य लाभ कर रहे हैं।  उनमें से भी एक कला किशोर कुत्ता तो प्रेम प्लावन की गजब दीप्ति से चमक रहा है , गजब की पुलकन प्रदीप्ति है उसमें। औरों में कुछ सुध भी है , कुछ समझदारी भी , पर यह तो बिलकुल असमझ ही चुका है , सारा सोच विचार गायब है उसका , न अपनापन का ज्ञान है इसे , न अपनत्व की पहचान।  वह तो प्रेमामृत पीकर बेसुध है , बेहोश है ,  मस्त है , मगन है।  मैं इसे ही देखता रहता हूँ।  इन कुत्तों के बीच आज अचानक दिव्य लोक के दर्शन हो रहे हैं।  दिव्य घटा घिर आयी है , इस स्थल पर दिव्या भावों की अजस्र वृष्टि हो रही है।  हम तो दंग हैं।  ऐसा प्रेम -प्रदर्शन , ऐसा आनंद - वर्षण इंसानों की दुनिया में कहाँ होता है ? मानव समाज में कहाँ मिलता है ?



III

और आज सुबह अपनी खिड़की से झाँका तो देखा पश्चिम में , उत्तर से दक्षिण जाती कच्ची सड़क पर चार कुत्ते , दो काले , दो लाल आपस में प्यार की दरिया बहा रहे हैं।  काले कुत्ते आपस में जुट गये हैं।  और लाल अपने में मगन।  मगर प्यार एक ही किस्म का है , एक ही रंग का दोनों में।  मात्रा भी , उफान भी , एक ही किस्म की। परम विमुक्त हो, बिलकुल निर्बंध निश्चिन्त हो , ये प्यार कर रहे हैं , खेल रहर हैं एक दूसरे से। लगता नहीं कि ये कुत्ते जानवर हैं , बेसमझ हैं, लालची हैं, खूंखार हैं , काटने वाले हैं , नख - दन्त वाले हैं।  लगता है  ये बिलकुल इंसान हैं , इंसानियत से लबा-लब , प्रेम से पूरित , स्नेह से विभोर , भाव से विह्वल ये इंसान भी नहीं , प्रेम के देवदूत लग रहे हैं , इश्क़ के फ़रिश्ते।  अजब अनुभूति है इनकी , अजब चमक। उल्लास की ये स्वर्गिक छटा बिखेर रहे हैं वातावरण में , आनंद की पीयूषवर्षी चाँदनी छिटका रहे हैं।  धरती पर आह्लाद की सरिता बहा रहे हैं , जीवन की मरुभूमि में। मैं कुछ दूर पर खड़े आ -जा रहे इंसानों के चिन्ताग्रस्त वेदना - विदग्ध सूखे चेहरों को देखता हूँ और परमानन्द के उल्लास की दीप्ति से ज्योतित - भास्वर इन कुत्तों की सत्ता को।  दोनों रूपों  में कितना अंतर है। मानव रूप कितना विकृत , कितना रुग्ण , कितना जीवन - वंचित और इनका रूप कितना शुद्ध , स्वस्थ , अविकृत , उन्नत, उत्थित। 



IV  

आज  शाम का दृश्य - मैं रेल लाइन के उत्तर टहलने गया था ; खुले आसमान और पसरी धरती के संगम समागम में डूब जाने, खो जाने।  किशोर गदराये आम्र वृक्षों से सटे जल भरे पोखर से कुछ दूर एक बूढ़ा स्वस्थ चरवाहा खाकी हाफ कमीज और ठेहुने तक गन्दी धोती पहने हुए , पटुए की रस्सी बीन रहा था  - उसकी गाय , भैंसे कुछ दूरी पर घास चर रही थीं।  उसके साथ एक -दो बाल गोपाल भी थे। जब मैं उस रास्ते से गुजरा तो बूढ़े ने मुझे गौर से देखा और मैंने भी बड़े गौर से उसे देखा।  बूढ़ा मुझे बड़ा अच्छा लगा कोमल , मुलायम , चिकना , स्नेह भरा , प्रेम पूरित।  मैं उसे कैसा लगा यह वही जाने। मैं कुछ दूर पर बैठ गया , धरती और आकाश के विराट प्रसार को देखने लगा।  धरती की हरियाली , आकाश की नीलिमा ; धरती पर असंख्य मस्त वनस्पतियों का उगना , हिलना , नाचना और आकाश में असंख्य पक्षियों का उड़ना, नाचना , क्रीड़ा करना।  आकाश और धरती की शोभा समृद्धि पर मंत्र मुग्ध था मैं।  धरती और आकाश क्या दिव्य जोड़ी।  धरती न रहे तो आकाश का क्या महत्व और आकाश न रहे तो धरती वैधव्य संतप्त।  आकाश और धरती के  शोभा सौंदर्य का रसपान कर ही रहा था कि मेरे पास धरती पर एक अजीब प्रेम लीला घटित हो गयी जिसके पात्र एक कुत्ता और वही बूढ़ा चरवाहा था।  बूढ़े ने एक प्रेमभरी लम्बी मौखिक सीटी दी।  मैंने वह प्रेम भरी सीटी सुनी। उस सीटी का कुछ अर्थ समझने लगा। उस सीटी के भीतर छिपे ह्रदय के अमृत प्रेम की अनुभूति करने लगा। सोचा जरूर
कुछ मधुर घटित होने वाला है।  इतने में देखता हूँ कि एक लाल स्वस्थ कुत्ता जाने कहाँ से उत्तर की ओर से उस बूढ़े की ओर बेतहाशा भागता आ रहा है।  कुत्ता राइफल से छूटी गोली या धनुष से छूटे तीर की तरह भाग रहा था।  आज मालूम हुआ कि कुत्ता भी इतनी तेज दौड़ सकता है , इतना लक्ष्य सम्मोहित लक्ष्याभिनिविष्ट हो सकता है।  लगा कि उस कुत्ते को दुनिया में कुछ सूझ ही नहीं रहा है , लगा कि इस कुत्ते के लिए दुनिया समाप्त हो गयी , देशकाल समाप्त हो गया , लगा कि कुत्ता eternity में दौड़ रहा है  -  बेतहाशा , बेखबर , मंत्रमुग्ध की तरह।  उस कुत्ते में कहाँ का वेग फूट पड़ा है।  कौन सा निर्झर फूट पड़ा है , मैं उसे देखते ही जा रहा हूँ । उसका दौड़ना , उसका आनंद विकीर्ण करना।  कुत्ता एकबाएक उस बूढ़े के पास जाकर थम जाता है , रुक जाता है , गति समाप्त हो जाती है , वेग थम जाता है , प्रवाह रुद्ध हो जाता है। अब कुत्ते की सारी गति, सारा वेग , सारी ऊर्जा , सारा स्नेह , सारा भाव प्रवाह उस बूढ़े की ओर मुड़ गया है। जैसे सरित्प्रवाह रुक कर पर्वत देव का अमृत अभिषेक करने लगा हो , कुत्ता अपने प्रेम प्रवाह से बूढ़े को नहला रहा है , सराबोर कर रहा है। बूढ़ा मस्त है कुत्ते के अगाध प्रेम को पाकर , कुत्ते के निश्छल पवन प्रेम को पाकर।  मुझे लगा कि प्रेम का यही शुद्ध रूप है , प्रेम का यही पवन रूप है। प्रेम इसी को कहते हैं। कुत्ता तितली की तरह नाच रहा है , थिरक रहा है उस बूढ़े फूल पर, कुत्ता अपने को पूरा उत्सर्जित विसर्जित  कर देना चाहता है उस बूढ़े पर। कुत्ता अपना सर्वस्व लुटा देना चाहता है।  कुत्ता अपने प्राणों का समस्त वैभवामृत उड़ेल रहा है उस बूढ़े पर। कुत्ता बूढ़े के अंग अंग को चाट रहा है , चूम  रहा है बूढ़े को। बूढ़े के अंग अंग सिहर उठे हैं , एक पावन प्रेम को पाकर, अंग अंग रोमांचित हो रहा है।बूढ़ा मगन है और मस्त है , प्रेम का अमृत छक कर पान कर रहा है।  कोई शब्द नहीं , कोई आवाज नहीं , केवल पीना - पीना -पीना कुत्ते के प्रेमामृत को।  मैं कुत्ते को भी धन्य समझता हूँ , उस बूढ़े को भी और अपने आप को भी धन्य कि आज यह कैसी प्रेम लीला मेरे सामने घटित हो रही है।  क्या कुत्तों से बढ़कर कोई प्रेमी जीव है ? असल में कुत्ते ही प्यार करना जानते हैं। 

प्रो (डॉ ) रवीन्द्र नाथ ओझा 
"निर्माल्यं" निबंध - संग्रह से 
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