Thursday, August 31, 2023

"संस्कृतियों का मिलन है श्रावण" - डॉ सुशीला ओझा (Dr Susheela Ojha)

 संस्कृतियों का मिलन है श्रावण

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डॉ सुशीला ओझा (Dr Susheela Ojha)



प्रकृति पुरुष का समन्वय, धरती आकाश का चकित अभिभूत समन्वय, नाग संस्कृति और देव संस्कृति का समन्वय, देव और दैत्य संस्कृति का समन्वय, सुर सरिता सागर का समन्वय, कन्याकुमारी और कैलाशपति का समन्वय,  शिव शक्ति का समन्वय, महाकाल महाकाली का समन्वय,  सुर सरिता और धरती का समन्वय, भाई बहन के शाश्वत संबंधों का समन्वय। लक्ष्मी और चन्द्रमा का समन्वय। अद्भुत समन्वय का महीना है सावन। एकतरफ हथेली पर प्रियतम नाम की मेहंदी की कलात्मकता है तो दूसरी तरफ भाई के प्रेम की मेहंदी की अनुरागमयी लालिमा  हथेली पर थिरकती है। 

यह सावन रसिकता, मादकता , प्रजननता की ऋतु है तो दूसरी ओर शिवतत्व और नाग तत्व का सम्मिश्रण भी है।  जनमेजय  का नागयज्ञ इसी सावन में समाप्त हुआ और आस्तिक ने नाग  पूजा का शुभारंभ किया। 'नाग पंचमी' इसी उपलक्ष्य में मनाया जाता है। सावन में जलाभिषेक रावणेश्वर पर श्रद्धा आस्था के प्रतीक हैं तो महाकालेश्वर  दिक् काल के त्रिशूल में वैयाकरण, नाट्य, संगीत  नटराज का तांडव और लास्य का समन्वय भी है। डमरु नाद ब्रह्म का प्रणेता है।   चतुर्दिक संपन्नता है, श्री समृद्धि है, लक्ष्मी सरस्वती काली  का महा समन्वय है। अद्भुत रचना है विराट चित्रकार की विराटता के कैनवास पर कितने कलात्मकता पारदर्शिता के साथ   तुलिका चलायी है ! रामराज्य की कल्पना  अपनी मौलिकता की चुनरिया पहन सज सवंर गई है। प्रजावत्सलता का अद्भुत चित्रांकन है -

 "ससि संपन्न सोह  महि कैसी.।उपकारी के संपति जैसी"   सर्वत्र स्वराज पूर्ण कौशल  के स्वर्ण  दंड  हरित मणि लेकर नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत किए हैं। विकृतियों के सारे पत्ते भयभीत होकर पीले पड़ गए हैं । अपना स्वराज है अपना आत्मबल है - 'अर्क जवास पात बिनु भयउ, जस सुराज खल उद्यम गयऊं'। 

हालाकि शिवत्व के लिए सभी पत्ते  लहलहा रहे हैं। 

 राजा बलि अपनी दानशीलता, पराक्रम, प्रजावत्सलता के शिखर को प्राप्त कर चुके थे। स्वर्ग पर भी अपना आधिपत्य जमा लिए थे। ऐसी स्थिति में सर्वत्र दैत्य संस्कृति का आधिपत्य असंतुलन का कारण बन जाती।  विष्णु ने  पांचवे अवतार वामन का लिया। विप्र बनकर बलि के दरवाजे पर याचक बन कर गए हैं। जब भी धरती असंतुलित होने का प्रश्न उठा है  विराटता को लघुता का कलेवर दिया गया है, बलि उस समय अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। दरवाजे पर विप्र की पुकार सुन बलि का ध्यान उधर आकृष्ट हुआ। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने  वामन को विष्णु रूप में पहचान लिया था। बलि को शुक्राचार्य ने सजग किया। राजा बलि विप्र की पुकार को अनसुनी नहीं कर सकते। यह कदम उनकी दानशीलता पर बहुत बड़ा प्रहार था। बलि ने आधे -अधुरे यज्ञ मंडप से उठकर विप्रवर का  स्वागत अभिवादन स्वस्तिवाचन  किया।  विप्र वामन थे, उन्होंने तीन पग धरती मांगा। राजा बलि दानवीर के समक्ष तीन पग धरती का क्या महत्व  ?? उन्हें अपनी दानशीलता पर गर्व था। 

वामन ने बलि से संकल्प करवाकर तीन पग धरती  लेने का निर्णय लिया  । बलि ने वामन के मांग को सहर्ष अंगीकार किया। वामन अपनी विराटता में पैर बढ़ाया, नापने को दो पग में सब कुछ नाप लिया। अभी तीसरा पग  शेष था। वामन ने कहा - अब तीसरा पैर कहाँ रखूं?? राजा बलि ने अपने सिर पर रखने को कहा। वामन ने तीसरा पैर बलि के सिर पर रखकर पाताल लोक भेज दिया। बलि ने पूछा -मेरी रक्षा कौन करेगा?? आप मेरे प्राण तत्व और आत्मा तत्व हैं प्रभु मैं आपके बिना नहीं रहूंगा। वामन ने दैव संस्कृति और दानव संस्कृति को अटूट बंधन सूत्र में बांधा है। उसकी प्रतिबद्धता, दृढ़संकल्पता, स्थिरता को सूत्रों में लपेटा है -

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:

तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल  मा चल

यह  रक्षे ही राखी  सूत्र की स्थिरता है, अटूटता है, अडिगता है। 

 रक्षा सूत्र बांधने पर वामन ने  बलि से वरदान मांगने को कहा है। बलि ने कहा है  हे प्रभु आप मेरे प्रहरी बन जायं, मेरे रक्षक, संरक्षक में  आपके महनीय योगदान की शुभाकांक्षा  है। भगवान भक्त की दासता को अंगीकार कर लिया। 

इधर दैवलोक में असंतुलन का डर था। लक्ष्मी विष्णु के लिए व्यग्र थीं। देवर्षि के मार्गदर्शन के पश्चात लक्ष्मी बलि  के पास पाताललोक गई हैं यही सावन की पूर्णिमा थी। लक्ष्मी ने बलि के पाश  से विष्णु को मुक्त कराने  का प्रस्ताव रखा है। विष्णु को मुक्त करने  के लिए  बलि ने चतुर्मास का समय मांगा है।  विष्णु को शेषनाग ने अपना मुलायम गदा दिया है। अपनी छतरी से विष्णु की रक्षा की है। लक्ष्मी विष्णु के पैर को धीरे-धीरे दबाती हैं।उन्हें दासत्व से मुक्ति की बात करती हैं। दीप दिवाली को लक्ष्मी धरती पर आती हैं। यमराज से भाई की दीर्घायु की कामना बहनें  करती हैं  । बलि प्रजा वत्सल थे  उन्होंने वामन  से सावन माह में धरती पर आने का  वरदान मांगा था। केरल में ओणम पर्व मनाया जाता है  । उसमें बलि की पूजा की जाती है। बलि दैत्य संस्कृति में पले थे। उनमें उनके दादा प्रहलाद  की देव संस्कृति अक्षुण्ण थी। लक्ष्मी सिंधु सुता हैं उन्होंने बलि को भाई मानकर पति को दासत्व, से मुक्ति दिलाई है।  सुता को  'दुहिता' कहते हैं। संस्कार में संरक्षित आरक्षित दुहिता सुरसरि की तरह होती है  । वह अपने संस्कार से दोनों किनारों को शस्य श्यामलाम् बनाती है।  दुहिता के नैतिक मूल्यों से संवर्धित, संरक्षित किनारा सर्वदा पल्लवित, पुष्पित , फलित होकर लहलहाता रहता है। 

सीता चक्रवर्ती राजा की बधू है और राजा जनक की पुत्री है.। चित्रकूट में वह विदेह की वैदेही बनकर अपने महान कर्तव्य साधना, उपासना, त्याग, तपस्या, समग्रता का  परिचय दिया है।  विदेह के  आह्लाद कंठ से मंत्र बनकर गंगोत्री से गंगा की तरह फूट पड़ा है "पुत्रि पवित्र किए कूल दोउ" 

बलि राजा दानशील, यशस्वी, पराक्रमी, प्रजावत्सल थे। गर्व की विकृति से बचाने के लिए ही वामन रूप रखकर श्रावण की पूर्णिमा को ही  विष्णु ने बलि की  परीक्षा ली थी। वचनबद्धता को  अंगीकार कराया था। पराक्रमी, यशस्वी के लिए अवमानना ही सबसे बड़ा दंडनीय अपराध है। दक्ष यज्ञ में  शिव का अंश न देखकर ही सती ने आत्मदाह का निर्णय लिया था  "सबसे कठिन जाति अवमानना" अपनी यश कीर्ति के सुवास को बलि ने अक्षुण्ण रखा और श्रावण मास की पूर्णिमा को अपनी प्रतिबद्धता के सूत्र को मंगलमयता, शुभता, जीवंतता, उत्सवधर्मिता कल्याणमयता  के नए कलेवर में  अपनी समन्वयता, समग्रता को पुनर्स्थापित करते हैं। यह सृष्टि का शाश्वत संबंध है  । इसकी लयात्मकता अक्षुण्ण है। 

डॉ सुशीला ओझा

 साहित्यकार, रचनाकार एवं संस्कृतिकर्मी 

(पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष

हिन्दी विभाग, महिला महाविद्यालय

बेतिया, पश्चिम चम्पारण, बिहार)


[साभार डॉ सुशीला ओझा के फेसबुक वॉल से ]











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