मेरे बाबूजी की साईकिल
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आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा की साईकिल
(चित्र डॉ अजय कुमार ओझा के सौजन्य से) |
मेरे बाबूजी (आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा) की शादी इन्ट्रेस पास करके हुई। मामा के यहाँ बड़े सम्भ्रांत लोग थे। साईकिल उस समय स्टेटस की बात होती थी। मेरे गाँव बड़का सिंहनपुरा (जिला बक्सर)से डुमरी स्कूल पाँच छह किलोमीटर था। बाबूजी पैदल स्कूल जाते थे। जूता -चप्पल भी दुलर्भ चीज था। घर में मर्द लोग खड़ाऊँ पहनते थे और औरतें खरपा (चटाखी) पाँच छह किलोमीटर बाबूजी पैदल जाते थे। भरी दोपहरी में माथे पर अँगौछा ओढ़े बाबूजी बगीचा बगीचा से होकर स्कूल जाते थे। बरसात में तो मेरे यहाँ बाढ़ आ जाती थी लोग डेंगी से या पवँर कर स्कूल जाते थे। पानी कम होता तो जूता हाथ में रखकर स्कूल जाते थे। चमरौधा जूता पानी में पड़कर अपनी इहलीला समाप्त कर देता था। उस चमरौधै जूते को बड़ी प्रेम से तेल लगाकर रखा जाता था। गुस्सा होकर पैर ही काट लेता था। जूता प्रेमिका की तरह तुनकमिजाजी होता था। सो बाबूजी पैदल चलते ओर जूता को प्यार से हाथ में रखते। नई नवेली दुल्हन की तरह जूते का बड़ा आदर होता था।
बाबूजी की शादी तय हुई सोनवानी (बलिया जिला) मिसिर लोग के गाँव में। बड़े सम्भ्रान्त लोग थे। उनके यहाँ दो हाथी था। चार घोड़े थे। हाथी हथिसार घोड़े घोड़सार बीस -पच्चीस गायें थीं। उस समय भैस का दूध पीना मोटा बुद्धि होना कहा जाता। बाबूजी की शादी हुई उस समय दस हजार रुपया दहेज तय हुआ। गाँव में तहलका मच गया। लड़के से पुछा गया। आपकी क्या मांग है । बाबूजी ने बड़ी प्रसन्नता से कहा -"घड़ी साईकिल और फाउन्टेन पेन " बाबूजी के जीवन का सपना। बडे दुख से पैदल जाकर पढ़ा था। शादी हुई मड़वे में दुल्हा बसिया खाने बैठे। उस समय शादी होने सिन्दूरदान होने में चार बज जाते थे। शुकवा तारि ध्रूवतारा, अरुंधती का दर्शन अखंड सौभाग्य की कामना में दिखाया जाता। खुला आँगन होता था। आसानी से कौवा बोलने के पहले सिन्दूरदान की रस्म पूरा हो जाती थी। बाबूजी मड़वे में बैठे अपनी माँग की कल्पना में डूब उतरा रहे थे । प्रतीक्षारत थे अब साईकिल कसा कर सामने आएगा। घड़ी फाउन्टेपन न भी मिले तो काम चल जाएगा। माने मेरी नई नवेली साईकिल रानी। मेरे जीवन की उत्कट अभिलाषा। बाबूजी की प्रतीक्षातुर आँखें एकटक से बगुले की तरह साईकिल के ध्यान में मग्न थी। विदाई हो गयी। दान-दहेज बहुत मिला गाँव जवार में हल्ला हो गया। सोनवानी के मिसिर लोग के यहाँ का दहेज है। लोग आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। लेकिन बाबूजी की सपनो की रानी नहीं मिली। बाबूजी उस सपने की रानी की प्रतीक्षा में कई दिन सोए नहीं थे। जब आँख लगे साईकिल टुनटुनाकर नींद खुल जाती।बाबूजी मन ही मन व्यग्र थे।मन ही मन क्रोध से आँखे लाल -पीली हो रही थी। क्या जरुरत थी? इतने दान-दहेज की?
दूसरे दिन मेरे बड़े नानाजी आकर बड़ी विनम्रता हाथ जोड़कर आँसुओं से पैर पखारते हुए मेरे बाबा से कहा -"हम लड़की वाले साधन हीन होते हैं। कोई हमारे स्वागत में कमी हो तो क्षमा कर दीजिएगा " बाबूजी को लग रहा था।अब नई नवेली साईकिल कसकर आएगी। बाबूजी का सपना अधूरा रह गया। साईकिल नहीं मिली। नानाजी बाबूजी जीके चरण फर साष्टांग गिर पड़े 'पाहुन जी भूल चुक माफ कीजिएगा। द्विरागमन में आपकी साईकिल कसवा कर भेजवा देंगें "आजतक साईकिल नहीं मिली। हमारे देहात में एक गीत गाया जाता है " हथिया हथिया सोर कइले गदहियो ना ले अइले रे । तोरा बहिन के सोटा मारो इज्जत सब लिहले रे " वही हाल हो गया। हाथी हथसार दुआर पर रहकर क्या फायदा ?असल में स़ंयुक्त परिवार था।हमारे नाना तीन भाई थे। परिवार में बारह लड़कियाँ थीं। एक को साईकिल देने का मतलब सबको देना था। परिवार में बड़ा भाई मुखिया होता था। उसके निर्णय को कोई नहीं टाल सकता था।
बाबूजी की पोस्टिंग शायद १९५६ में एम. जे.के कालेज हुई। सैलरी के पैसे से साईकिल , घड़ी खरीदा। वर्षों की प्रतीक्षा उनकी पूरी हुई। खूब झाड़ पोछकर साईकिल रखते थे। सबसे बड़ी बात थी कि गाँव में दहेज में बाबूजी से पहले किसी को साईकिल नहीं मिली थी। बड़ी इज्जत थी साईकिल की रोज तेल लगता था। बड़ी ठसक से कांँलेज जाते साईकिल पर। अरे अब कितना समय लगेगा बस पाँच मिनट में काॅलेज पहुँच जाएंगे। मेरा भी मन करता साईकिल पर घूमने की। बाबूजी ले जाते। मुझे अपने आगे साईकिल के पाईप पर बैठा देते। मेरी हालत खराब हो जाती। एक बार दो बार तो घूमने के जोश में मैंने कुछ नहीं कहा। जोश खतम होने होने लगा। साईकिल के आगे बैठने पर मेरे पैर में दर्द होने लगता था। बाजार जाना था बाबूजी ने कहा -चलो बेटा! घूमने साईकिल से । मैंने कहा "बाबूजी मैं बैठती हूँ, तो मुझे दर्द होने लगता है " बाबूजी को बात समझ में आयी। आगे छोटा सा मुलायम सीट लगवा दिया। कभी कभी बारिश होने लगती बाबूजी साईकिल को बाल्टी में पानी लेकर मग से धोते थे। पहले घर के सामने पानी लग जाता तो बाबूजी साईकिल उठाकर लाते। कहते पानी में साईकिल गराब हो जाएगी। बरसात कीचड़ में नहीं निकालते साईकिल। कहते साईकिल के पहिए में मिट्टी लग जाएगी।
बाबूजी की साईकिल नौकरी लगी तो खरीदी गई। अवकाश प्राप्त होने पर भी साईकिल बाबूजी की प्रतीक्षा करती। मेरा अपमान मतकीजिए रोज नहलाईए तेल लगाईए मैं चमकती रहूँगी । प्रकृति के पुजारी थे बाबूजी। साईकिल लेकर शहर से दूर कहीं तालाब पर बगीचे की सैर करने निकल जाते थे। बाद में डाॅ बाबूजी को साईकिल चलाना मना कर दिया। लेकिन बाबूजी साईकिल का रोज मान मनौवल करते। बेटा लोग कहता था --बाबूजी इस पुरानी साईकिल को किसी को दे दीजिए । स्कुटी ला रहा हूँ। बाबूजी कहते -"तुम्हारी माँ सौन्दर्य की देवी थी। आज बूढ़ी हो गई है तो मैं उसको छोड़ दूँगा" मेरी पहली कमाई की पहचान है साईकिल मैं जब तक जीवित रहूँगा मेरे सामने रहेगी। मेरे सपनों की रानी है। इसमें मेरा सम्पूर्ण अतीत वर्तमान समाया हुआ है । इतना बड़े सम्भ्रान्त परिवार में शादी हुई। उन सालों के पास साईकिल देने की सामर्थ्य नहीं थी। अपनी कमाई क्या चीज होती है? मैंने इस साईकिल से सीखा है। मेरा मान, मेरी पहचान, मेरा स्वाभिमान साईकिल है।
बाबूजी के दिवंगत होने पर बेटों ने साईकिल नहीं बेचा। दिल्ली से बड़े बेटे आते थे तो साईकिल को प्रणाम करते थे । साईकिल में बाबूजी की आत्मा है। कैसे -कैसे बाबूजी साईकिल की देख रेख करते थे। कितने लोग की साईकिल चोरी हो गई। बाबूजी की साईकिल में क्या खूबी थी कि किसीने छुआ नहीं। उनके दामाद (डाॅ बलराम मिश्रा ) की साईकिल दो तीन बार चोरी हो गई । जबकी साईकिल में ताला लगा था। चोर इतने होशियार थे कि साईकिल को कांधे पर चढ़ाकर आदर के साथ ले जाते थे।ं बाबूजी के शेष होने पर साईकिल की देख रेख में कमी आ गयी। मैंने कहा -"बाबूजी की पहली कमाई का प्रसाद है। रखे -रखे खराब हो जाएगा " एक दिन कबाड़ बेच रही थी। कबाड़़ वाला का लड़का बड़ी ध्यान से साईकिल को देख रहा था। कई बार उसे छुआ चलाया। उसके मन में ललक थी साईकिल की। पैसे के अभाव में साईकिल नहीं उपलब्ध हो रहा है। मुझे बाबूजी की बात याद आयी कैसे साईकिल के लिए तड़पते रह गए। यह लड़का भी चार किलोमीटर पैदल स्कूल जाता है। कड़ीधूप, बरसात, सर्दी में स्कूल जाता है। मैंने उस बच्चे को साईकिल दै दिया। बाबूजी जी की आत्मा को शान्ति मिली होगी।
आजकल सभी चीजों का दिवस मनाया जा रहा है।विलु्प्त हुई चीजों की याद में दिवस मनाया जारहा है। मदर्स डे फादर्स डे पता नहीं कितने डे धरती पर मनाए जा रहे हैं। पहले माँबाप का आदर होता था। सेवाशुश्रूषा होती थी। आदर सम्मान होता था। तो डे की बात नहीं होती थीं। जबसे माँ बाप का अपमान होने लगा है। वृद्धाश्रम बनने लगे हैं। बड़े बुजुर्गों के आदर सम्मान जैसी बातें विलुप्त होती जारही हैं। इसलिए डे की अवधारणाएं बनी हैं। साल भर पर भी माँ बाप कहाने वाले विलुप्त होने के कगार पर आए प्रजातियों के नाम पर कुछ मुर्गा मछली खा लिया जाय। धूम धाम से डे मना लिया जाय।
डॉ सुशीला ओझा बेतिया, प. चम्पारण
(डॉ सुशीला ओझा के फेसबुक वॉल से साभार)
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